आदरणीय राष्ट्रपति महोदय,
देश के 15वें राष्ट्राध्यक्ष बनने की बधाई ! विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की रखवाली और उसी तंत्र के बूते देश की खुशहाली का जिम्मा आपको अवाम ने सौंपा है। देश के 12 करोड़ मूल वाशिंदों के लिए यह साल गौरव का साल है। आज कितना अच्छा लग रहा है, पहाड़ों-जंगलों और बीहड़ों-दर्रों-घाटियों की बस्तियों के रहवासी लोगों के बीच की बिटिया आज रायसीना के पहाड़ियों में ससम्मान आमंत्रित की गयी। जंगलों से इस भव्य महल का सफर सहज नहीं होता– इसलिए सम्मान के साथ लोकतान्त्रिक मूल्यों, आदर्शों और भावनाओं के साथ इस ऐतिहासिक भवन में आपकी गरिमामय उपस्थिति से हम आदिवासियों का मन मुदित है। आत्मा आह्लादित है।
महामना! देश अगले साल आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनाएगा। इसे आयोजन को महोत्सव का रूप दिया गया है। तय है कि अपनी उपलब्धियों और तरक्की की खुशियां मिल-जुलकर मनाएंगे। चूँकि विकास समृद्धि के सफर में इतना समय कम नहीं होता। आंकड़ों पर गौर करें तो हम बहुत आगे बढ़ चुके हैं। तरक्की की इस कहानी का सार बस इतना ही है कि जिस समाज का नाम लेते ही ज़हन में तीर – कमान लिए वैसे कुरूप चहरे नजर के सामने उभरते थे जिसने कभी न शहरी सभ्यता को जाना या माना। बस, किसी सरकारी उत्सव-महोत्सव में सफेद साड़ियों में लिपटी, बगल-पंख खोंसे, पाजेब पहनी, आँखों में काजल लगाई वे स्त्रियां एक दूसरे की कमर में हाथ डेल सामूहिक नृत्य करती दिखती हैं। सजना ही ज़िन्दगी है और नाचना ही ज़िन्दगी की आत्मा है। सालों से मुल्क के कर्ण – कुहर में कंठरव से फूटते कलरव का कोमल निनाद आत्ममुदित करता रहा। अवाम तरक्की करता रहा, आदिवासी स्त्रियां ऐसे ही सजती रहीं, गाती और ओझल होती रहीं।
उल्लेखनीय है कि आजादी मिलने के बाद देश में 12 फीसदी लोग साक्षर थे। शिशु मृत्यु दर 145 (प्रति 1000) था। देश में चिकित्सकों की संख्या 50 हजार के करीब थी और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या महज 725 थी। हर 11 महिलाओं में एक महिला पढ़-लिख सकती थी। जीवन प्रत्याशा 32 साल थी और हर दस हजार गर्भवती महिलाओं में दो हजार की मौत बच्चा पैदा करते वक़्त होती थी। आंकड़ों का यह सत्य सरकार के दस्तावेजों में है।
लेकिन अब दशा बदल चुकी है। अब रोज-रोज के मायावी रंगीन विज्ञापनों और सरकारी दस्तावेजों में तमाम जीवन सुरक्षित हैं। दावे ऐसे ही हैं। तमाम बुनियादी अधिकार महफूज हैं। आजादी सब के लिए है और उससे भी बड़ी बात है कि श्री दीनदयाल उपाध्याय ने समाज के आखिरी छोर पर बैठे अंतिम जन तक आजादी की मौजूदगी की जो नसीहत दी थी, वैसा ही सब कुछ होने का भरोसा सरकार देती है। यदि सरकारी दस्तावेजों में ऊपर के आंकड़े विश्वसनीय हैं तो आज के आंकड़ों पर यकीन क्यों न किया जाए। लेकिन अहम सवाल है कि आज विकास के मॉडल में, आजादी के तमाम सरोकारों में और उपलब्धियों के महिमागान में कहाँ है आदिवासी स्त्री! उसकी अहमियत और उसकी अस्मिता! करीब 5 करोड़ 52 लाख आदिवासी स्त्रियों/कन्याओं के लिए आजादी का मकसद क्या है, उनके लिए लोकतंत्र के मायने क्या है– ऐसे न जाने कितने सवाल हैं जिसे लेकर तमाम तरह के वाद और विवाद हैं।
समाजविज्ञानियों का कथन सच है कि आदिवासी समाज की धुरी में महिलाएं होतीं हैं। यह सच है। लेकिन आदिवासी समाज जिन जंगलों के बूते अपनी ज़िंदगी जीता आया है, उस बारे में सवाल है कि आज आदिवासियों का जंगलों से नाता कितना रह गया है ? ये तमाम सवाल रायसीना हिल्स के उस भव्य राजप्रासाद से है जहाँ से मुल्क संचालित किया जाता है। जहाँ से भारत है। यह मुल्क है। तीनों सेनाएं हैं। सरकार है। विधायिका है, न्यायपालिका है और कार्यपालिका है। महोदया! क्या जंगलों में जाने वाली औरतें सुरक्षित होतीं हैं? क़ानून के प्रावधानों का हवाला देकर जंगलों में जाकर लकड़ियां जुटातीं औरतें जंगलात विभाग के कारिंदों के जुल्म झेलने को मजबूर नहीं हैं ? क्या वनोपज इकट्ठे करने गयी स्त्रियां क़ानून के ‘रक्षकों’ के चंगुल में नहीं फँसतीं ? अखबारों में ऐसी खबरें कभी-कभार पढ़ने को मिलतीं हैं। जैसे महाराष्ट्र के थाने जिले में राकेश पाटिल नामक फारेस्ट गार्ड ने इसी तरह का गुनाह किया था। लेकिन राकेश पाटिल अकेला इंसान है, न ही पहला है और न आखिरी व्यक्ति है। तेलंगाना के जयशंकर भूपालपल्ली जिले में आदिवासी युवती के साथ सामूहिक बलात्कार, केरल के वायनाड जिले में 14 साल की जनजातीय लड़की के साथ दुष्कर्म और बंगाल के बीरभूम में 33 साल की एक आदिवासी महिला के साथ किये गए कुकर्म को देश भूल सकता है, हमारा और आपका आदिवासी समाज नहीं।
अपराध अपनी जगह है लेकिन लोक आस्थाओं और पालनहारों का नजरिया बिलकुल सकारात्मक है। साहित्य के नजरिये से जनजातीय स्त्रियां अपने समाज की गति होतीं हैं, परिवार की ताक़त होतीं हैं और अपने परिवेश की ऊर्जा होतीं हैं। आपसे बेहतर कौन जनता है। आपने इस जिंदगी को जिया है। उत्तर-पूर्वी भारतीय राज्यों के जनजातीय समाज से अलग हटकर शेष भारत को करीब से देखिये तो स्त्रियों के हाथों में निर्णय की बागडोर भले ही नहीं होती लेकिन उसके बिना न खेती है, न जलावन है, न छत है और न छाजन है। न गीत है, न नृत्य है, न पर्व है और न जीवन के संघर्षों से लड़ने के हौसले हैं। जंगलों में नियमित आवागमन महिलाएं करतीं हैं। उज्ज्वला योजना की रस्मी उत्सवों के फुस्स हो गयी व्यथाओं के बीच ये स्त्रियां रसोई के लिए जलावन जुटातीं हैं।
वन-धन योजना से मुदित हुई आदिवासी स्त्रियां लघु वनोपज (माइनर फॉरेस्ट प्रोड्यूस) इकट्ठा करती हैं। बाजारों में लाकर कौड़ियों के मोल पर उन्हें बेचती हैं। क्योंकि सरकार आज भी इस जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ लेती है। औरतें ही बाजारों में अनाज बेचती और खरीदती हैं। पीठ पर अपने बच्चे को लटकाए धान रोपती हैं और उसकी फसलें काटती हैं। अनाज ओसाती हैं, ओखल में अनाज और भूस अलग करती हैं , जंगलों या गाँव-घर के करीब महुआ बिनती हैं और सुखाती हैं। आदिवासी स्त्रियां कितनी तन्मयता, लगन और प्रतिबद्धता से अपना काम करती हैं।
यही दृश्य आजादी के पहले देखा जाता था। यह बात दूसरी है कि तब इनके बदन पर कपड़े कम होते थे। आज माहौल बदला है। घास-फूस और बांस के बने झोपड़ों की जगह प्रधानमंत्री आवास योजना वाले घर देखे जा सकते हैं। उन घरों में अंत्योदय वाले लाल-मटमैले चावल हैं। सरसों तेल भी है। महुआ के फूलों से भरा कुठिला भी है। गाँव को गाँव से जोड़ने वाली प्रधानमंत्री ग्राम्य सड़क योजना की सड़कें भी हैं। राशन की दुकान हैं। उन दुकानों में अनाज हैं और अनाज नियमित या अनियमित तौर से बांटे जाने की परंपरा भी है जिसके अभ्यस्त हो चुके स्थानीय लोग स्थितियों से समझौता कर चुके हैं। शिक्षा के प्रसाद बांटते सरकारी स्कूल, शिक्षा के अधिकार के तहत हर बच्चे को मुफ्त की शिक्षा के प्रावधान भी हैं और साथ में दोपहर का मिड-डे मील भी है। गाँव-गाँव बिजली है। बिजली नहीं तो सौर-ऊर्जा के विकल्प मौजूद है। मोबाइल के टावर हैं। डेटा-पैक और टॉप-अप बेचती दुकानें मौजूद हैं। कितनी तरक्की है लेकिन आदिवासी कहाँ हैं?
आदिवासियों की एक बिटिया आज तीनों सेना की मुखिया है लेकिन इतने विकास के सामने क्या आदिवासी ख़ास तौर से स्त्रियां भी निर्भीक हैं? क्या उनके खिलाफ रची गयी साजिशों की कोई गुंजाइश नहीं है? इन तमाम सवालों के बीच जिज्ञासा इस बात की भी है कि सालों-साल से जंगलों में बढ़ते लाल आतंक के चलते स्त्रियों की अस्मत कहाँ तक सुरक्षित रही है? आज के मौजूदा दौर में जब बस्तर के हालात पर नज़र डालते हैं तो तस्वीर का एक दूसरा रुख स्पष्ट होता है, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। लेकिन ज़मीनी तौर पर बुनियादी मुद्दा है सरकार की गंभीरता, उसकी संवेदनशीलता कि वह किस हद तक आदिवासियों के द्वार तक आजादी पहुंचाना चाहती है। यानी संविधान की संकल्पनाओं में जिस समानता-स्वतंत्रता और अधिकार की प्रतिज्ञाएं हैं वे आदिवासी बस्तियों के हर द्वार-आँगन तक पहुँच बनाने में सफल रहे हैं या कोई पेचीदगी और अनेकानेक विरोधाभास हैं। यह बात जरूर है कि एलविन कमेटी (1959), यू.एन. ढेबर आयोग (1960), लोकुर समिति (1965), शीलू ओ समिति, 1966, भूरिया समिति (1991), भूरिया आयोग (2002-2004), बंदोपाध्याय समिति (2006), मुंजेकर समिति (2005) के जरिये भारत सरकार ने आदिवासियों को समझने की कोशिश की थी। उनकी भाषा-संस्कृति और उनकी मान्यताओं और धारणाओं के अनुरूप विकास की नीतियों के निर्माण तथा कार्यान्वयन की कोशिशें भी हुई हैं।
लेकिन ढेर सारे दुःख और व्यथाओं को समेटकर आपके सामने एकमुश्त हम आदिवासी रख रहे हैं। जनजातीय समाज के विकास और उनके नस्ल के संरक्षण के मसले को लेकर सरकार का रवैया न सिर्फ जनजातीय भावनाओं और परम्पराओं के प्रतिकूल साबित हुआ है बल्कि जाने-अनजाने ये आदिवासी स्त्रियां हाशिये पर दूर धकेली गयीं हैं। नतीजतन, झारखण्ड या तेलंगाना या विदर्भ या दंडकारण्य– किसी भी आदिवासी बहुल इलाके में मौजूद विकास के मॉडल में जंगलों-पठारों और पहाड़ों की स्त्रियां आजादी के स्वाद से आज भी वंचित हैं। झारखण्ड के पाठ इलाके में जहाँ बॉक्साइट के अकूत भण्डार हैं, वहां की असुर जनजातीय महिलाओं ने कभी आजादी का सुख जाना ही नहीं!
भोजन के अधिकार के तहत अनाज तो मिला लेकिन पीने के पानी के लिए उन्हें कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। अपने गाँव से पांच-पांच किलोमीटर दूरी तय कर गागर भरतीं हैं। जिस दिन पानी भरतीं हैं उस दिन जलावन की लकड़ियां लाने जंगलों में जाना मुमकिन नहीं होता। जंगलों में जाने का मतलब दिन भर की कड़ी मशक्कत– सुबह 4 बजे घर से निकलना और 2 बजे तक इधर-उधर भटकना। ओडिशा के मलकानगिरी जैसे इलाकों में ज़िन्दगी दुश्वारियों से दब जाती है। वहां के पोडिया इलाके में आदिवासी झरने का पानी पीकर ज़िंदगी काट रहे हैं। यही हाल झारखण्ड के पाकुड़ का है। यकीन के लिए संताल परगना के उस इलाके की तस्वीरें भेज रहा हूँ जो बताने के लिए माकूल और मुफीद है कि उन संतालों के लिए आज भी आजादी का मकसद पूरा नहीं हो सका है।
जंगल और पहाड़ काटे जाने से पर्यावरण के नाश की पहली और सबसे बड़ी कीमत आदिवासी स्त्रियां चुकातीं हैं। क्योंकि देश के 95 प्रतिशत आदिवासी आबादी तक उज्ज्वला योजना का कोई मतलब नहीं है। वे जंगलों पर निर्भर हैं। लेकिन जंगलों का दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है। आबादी का दवाब उन जंगलों पर है और काटे जा रहे जंगलों में रहनेवाले जानवरों की झुंझलाहट उन महिलाओं पर उतरती है जो जंगलों में लकड़ियां चुनने जातीं हैं। जो स्त्रियां जंगलों के करीब के खेतों में काम करने जाती हैं। पहाड़ों के तोड़े जाने से आदिवासी बस्तियां उजाड़ी जातीं हैं। इस तरह उजड़ी बस्तियों से विस्थापित लोग नयी जगह जाकर स्थानीय लोकाचारों और अन्य किस्म की भयावह दुष्प्रवृतियों की भेंट चढ़ जाते हैं। मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले के कुंदम प्रखंड के आदिवासी बहुल उन 17 गाँवों के दो तिहाई मर्द परदेस से सूजाक लेकर आये। क्या सूजाक से ग्रसित पुरुषों की पत्नियां संक्रमित नहीं होतीं? उन गाँवों की महिलाओं में ट्रायकोमोइसिस एक बेहद आम बीमारी है जिसके बारे में चिकित्सकों का कहना है कि यौन संक्रमित संक्रमणों में सबसे खतरनाक रोग ट्रायकोमोइसिस है जिसका तेज़ी से प्रसार होता है। कुंदम प्रखंड में महिला अधिकारिता और स्त्री सशक्तता का कोई मतलब नहीं है। ट्रायकोमोइसिस की गिरफ्त में मौत मिलती नहीं है और तड़प-दर्द और जलन से ज़िंदगी नारकीय हो जाती है। इस तरह के रोगों के रोकथाम को लेकर सरकारी या गैर-सरकारी चिंताएं देखने को नहीं मिल रहीं हैं।
आजादी के स्वाद से वंचना कोई सतही बात नहीं है। इसके व्यापक अर्थ हैं। आजादी के हीरक जयंती के कगार पर खड़े राष्ट्र के मूल वाशिंदों की साक्षरता दर बमुश्किल 59 प्रतिशत है। स्त्री साक्षरता दर तो महज 49.4 फीसद है जिसकी वजह से विकास का सफर बहुत बोझिल और थकाऊ साबित हो रहा है। इसी कारण अशिक्षित स्त्रियाँ जीवन की समस्याओं से उभरी परिस्थितियों को झेल पाने में असमर्थ होती हैं। आखिरकार समझौता उनके जीवन का रंग और रूपक बन जाता है। जब ओडिशा के पश्चिमी जिलों में एक स्त्री की मजदूरी 35 रुपये थी तो ठेकेदार अपनी मनचाही मजदूरिन को रात भर के लिए अपने पास रोक लेता था। इसके एवज में उस मजदूरिन को एक सौ रुपये कीमत देता था। मजदूरी करने के बाद इस रकम का मतलब था रात भर के लिए स्त्री देह की कीमत 65 रुपये। उन दिनों मुर्गे के एक किलो गोश्त की कीमत 65 रुपये से ज्यादा होती थी। यानी मजदूरिन की देह मुर्गे के एक किलो गोश्त की कीमत से भी सस्ती खरीदी जाती थी। अब मजदूरी भले ही बढ़ गयी हो, देह का दोहन भला कहाँ थमने वाला है। आदिवासी स्त्रियों के खरीद-फरोख्त का सिलसिला देश में न कभी थमा है और शायद थमेगा भी नहीं।
बीती सदी के साठ के दशक में राजस्थान के भरतपुर में आदिवासी लड़कियों की मंडियां लगतीं थीं। लेकिन मीडिया की सक्रियता के बाद सरकार द्वारा उठाये गए सख्त क़दमों की वजह से खुले आकाश के नीचे इस मंडी का कारोबार थम गया किन्तु भूमिगत व्यापार में कमी नहीं आयी। सत्तर के दशक में मध्यप्रदेश (तब आज का छत्तीसगढ़ भी सम्मिलित) के मतदाता सूची से एक लाख आदिवासी स्त्रियों के अचानक हटा दिए गए। ये स्त्रियां कहां गई? यही सवाल तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरेंद्र कुमार सखलेचा के कार्यकाल में सदन में पूछा गया था। मगर आदिवासी बहुल इलाकों से लड़कियाँ रोजगार के लालच में बाहर जा रहीं हैं या भेजी जा रहीं हैं। क्योंकि वहां रोजगार नहीं है। योजनाएं हैं जिन पर तरक्की के मुलम्मे हैं लेकिन उसका खोखला यथार्थ जगजाहिर है। आलम यही है कि ओडिशा और ख़ास तौर से झारखण्ड में गाँव के गाँव खाली हो गए हैं। उन गाँवों से बारह साल की लड़कियों से लेकर 35 साल की स्त्रियां महानगरों में कामगार मजदूर बन गयीं हैं या कोठियों में नौकरानी बनकर काम कर रहीं हैं। लेकिन उन कोठियों में आदिवासी लड़कियों के शोषण की खबरें कभी-कभार अखबारों की सुर्खियाँ बनतीं है तो सभ्य समाज की सिंथेटिक संवेदनाएं गहराने लगतीं हैं।
सेहत-शिक्षा और रोजगार को लेकर देश की सरकारें गंभीर रहीं हैं। पर आदिवासी विकास के मायने बड़े शिथिल और कमजोर हैं। बिहार के रोहतास और कैमूर जिलों में आदिवासी लड़कों की पढ़ाई के लिए राज्य सरकार के फण्ड से कोई दर्जन भर आश्रम स्कूल 1952 से संचालित हैं। लेकिन शिक्षा के इस सत्तर साल के सफर में कन्याओं की कोई पाठशाला भी नहीं है। शायद यही वजह है कि ‘बेटी बचाओ बेटी पढाओ’ नारे की बुलंदियां यहाँ दम तोड़ देती है। आदिवासी बेटियां बचा रहे हैं लेकिन बेटी पढ़ाने को लेकर न सभ्य समाज सक्रिय है और न सरकार की ऐसी कोई चिंता है। देश में न जाने ऐसे कितने कैमूर होंगे, कितने रोहतास– कहना मुश्किल है। शिक्षा के अभाव में या शिक्षा एक हद तक हासिल किये जाने के बाद रोजगार की व्यवस्था नहीं होने के चलते लड़कियाँ रोजगार के पारम्परिक स्रोतों को अपनाने के लिए बाध्य होती हैं।
आज के दौर में आजादी के 75 साल में आदिवासी स्त्रियों ने क्या हासिल किया ? क्या उनके आत्मबल, आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता को लेकर कोई मुकम्मल कार्यक्रम किसी राज्य की सरकार ने पूरा किया हो तो कोई बताये। केंद्र की सरकार ने उन वनजाओं की आत्मनिर्भरता के लिए कोई कदम उठाया हो तो आंकड़ों और उपलब्धियों का हवाला दिए बगैर लाभान्वित हो चुकी किसी आदिवासी स्त्री के बारे में नाम-मुकाम समेत बताये। बहुत हो गयी कहानियां ओडिशा की हजारों अनब्याही माताओं की। बहुत सुन लिया गन्ने के खेत में काम करने वाली स्त्रियों की जीवंत कथाएं कि माहवारी के दिनों में काम नहीं मिलने से छुटकारे के लिए उन्होंने अपना गर्भाशय निकलवा लिया। पानी से विपन्न इलाके में पेयजल इकट्ठा करने के लिए एक या दो से कहीं शादी करने की घटनाएं। उन तस्वीरों का क्या करना जो बताती हैं कि गर्भवती को अस्पताल पहुंचाने केलिए उसे खाट पर लादकर नदी पार करवाते परिजन बेचारे हैं। अब किसी विशेषण की जरुरत नहीं। क्योंकि देश तरक्की कर रहा है।
आदरणीय महामहिम! सरकारी विज्ञापनों पर खिलखिलाती स्त्रियां क्या सच में खुश हैं, यह जान लेना जरूरी है। क्योंकि ज़मीनी हकीकत सामने रखने का यह दौर है। इस दौर को संजीदगी से समझिये। विकास बहुत हो चुका। लोकतंत्र की हांडी में आदिवासी स्त्री की उन्नति की कहानियां छलक रहीं हैं। इन कहानियों पर यकीं करने से पहले मुंबई-ठाणे मार्ग के किनारे के ढाबों में रूककर देखिये। वन की पुत्री अब बन चुकी है ढाबा सुंदरी। मुंबई-ठाणे नाम नहीं रास आ रहा हो तो और कोई और नाम डालकर तफ्तीश कीजिये। इतना के बावजूद मन नहीं माने तो कई सारे कीवर्ड्स हैं जिसके जरिये गूगल सर्च इंजन बताएगा आदिवासी स्त्रियों का हाल। उनकी तरक्की की खोखली सच्चाईयां। ईमानदारी से कोई भी सर्च करे, एक से एक सच सामने आयेगा।
हम हैं देश के 10 करोड़ 40 लाख वैसे लोग, जिनके पूर्वजों के साथ ऐतिहासिक अन्याय किया गया। इस अन्याय के घाव पर मलहम लगाने से कहें बेहतर है उन हथियारों को कुंद करना जिनसे हसदेव अरण्य का सफाया किया जा रहा है। महामहिम, आजादी के अमृत महोत्सव का मतलब वह सब कुछ है जो सरकार कर रही है लेकिन हमारे लिये आजादी का मतलब है जल-जंगल-ज़मीन-जन और जानवर के परस्पर संबंधों को मजबूती देना।
दलगत राजनीति की जरूरतों से कहीं ज्यादा जरूरी है करोड़ों देशवासियों के संग कुछ करोड़ आदिवासियों का भी भला होना, जिन्हें आज तक सियासी बिसात पर प्यादा और मोहरा से ज्यादा कुछ नहीं समझा गया। हमें पूरी उम्मीद और विश्वास है कि आप आदिवासी भारत की मूल भावनाओं को बचाने और उनके संवर्द्धन की बड़ी मुहिम में सफल होंगी, हमारी शुभकामनायें!
आपका विश्वासी
देश का हर आदिवासी
(लेखक आदिवासी मामलों के जानकार हैं)