गीतांजलि श्री का जन्म 12 जून 1957 ई0 को हुआ था। गीतांजलि जी अपनी शैली के कारण विशेष प्रसिद्ध रही हैं। गीतांजलि श्री का कहना है कि मेरे विचार में, सृजन में सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक है कलाकार की ईमानदारी। जो लेखक कलाकार अपने दिलो-दिमाग और अपनी आत्मा की आवाज के प्रति ईमानदार नहीं है वह पाठकों का मनोरंजन तो कर सकता है पर उनके हृदय की गहराई तक नहीं पहुंच सकता है। गीतांजलि जी का यह कथन उनकी ईमानदारी को ही प्रदर्शित नहीं करता बल्कि किसी भी साहित्य की उपादेयता की सबसे मूल कड़ी को प्रदर्शित करता है। उनका यह कथन उनके लेखकीय ईमानदारी को प्रदर्शित करता है, जिसे उन्होंने अपनी रचनाओं में पिरोया ही नहीं है बल्कि पाठकों के समक्ष इस ईमानदारी को मजबूती से प्रकट भी किया है। यह सच है कि पाठक सिर्फ मनोरंजन नहीं चाहता है बल्कि साहित्य का उद्देश्य अन्य भी है, जिसे जी गीतांजलि जी बहुत अच्छे से महसूस करती हैं और यही कारण रहा है कि उनकी रचनाओं में हमें उनकी सोच के अनुरूप विषय प्राप्त होता है। गीतांजलि की प्रसिद्धि का कारण भी संभवत यही है।
जीवन को फिर से जीने की ललक इनकी रचनाओं में देखी जा सकती है। देश के सीमाओं के बंटवारे मनुष्य के जीवन पर कितना फर्क डालते हैं, यह रोजी किन्नर के माध्यम से हम बड़ी आसानी से देख सकते हैं। वैसे गीतांजलि जी की यह बड़ी खासियत रही है कि वह अपने पात्रों के माध्यम से बड़ी आसानी से जीवन और उसके मर्म को उभार देती हैं। उनकी यह कला मुझे विशेष रूप से पसंद है। अगर हम कहानियों की बात करें तो इनकी कहानियों में विद्रोह और प्रतिरोध का स्वर हमें निरंतर दिखाई देता है।
इनकी कहानियों में विषय की संप्रेषणता बड़ी अद्भुत है। इनकी कहानियों में शिक्षित वर्ग की आधुनिक मानसिकता प्रखर रूप से उभर कर के आती है। कहानियों में मध्यवर्गीय नारी अपनी पूरी संवेदना के साथ उपस्थित हुई है। कहानियों में आधुनिक नारी जीवन का हर पक्ष, सामाजिक रूढ़ियां, धर्म, जाति, उससे उत्पन्न समस्याएं, स्त्रियों की पारस्परिक मित्रता आदि अनेकानेक विषय इनकी कहानियों के द्वारा पाठकों को छूते हैं।
कहानी चाहे जो भी हो हर स्थिति, हर संबंध, हर संघर्ष में एक परस्पर विरोधी स्वर व्याप्त है। यह विरोधी स्वर ही इनकी रचना को अन्य रचनाकारों से अलग कर देता है। कथा प्रवाह में पृष्ठभूमि का निर्माण की बहुत भूमिका होती है। पृष्ठभूमि निर्माण में गीतांजलि जी बड़ी सूक्ष्मता से अपने को प्रस्तुत करती हैं। यह पृष्ठ भूमि निर्माण कथानक से सीधा जुड़ता है। इनकी कहानियों में परिवेश बड़े अच्छे से उभरते हैं जैसे प्राइवेट लाइफ कहानी से एक बिंब उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत है जो घर के वातावरण को कितनी सुंदरता से उपस्थित करता है, देखें – “छत पर बोनसाई के पेड़ एकत्र किए थे। रसोई में लकड़ी के बर्तन भर दिए थे। गैस, सेकंड हैंड फ्रिज, म्यूजिक सिस्टम सबके लिए जगह बना ली गई थी।(प्राइवेट लाइफ कहानी से साभार)
गीतांजलि जी की कहानियों में हमें दो पीढ़ियों की सोच का फर्क भी बड़ी बारीकी से दिखता है। यहां पर शराब पीती हुई लड़की भी है और अपने संस्कारों को त्रस्त हुई स्त्री भी है। गीतांजलि जी की कहानियों का टोन अलग है। इनकी कहानियों में विचलन नहीं है। इन कहानियों में एक नया सिगनेचर ट्यून प्रवाहित होता है। इनकी कहानियों में दार्शनिकता के साथ फक्कड़पन भी मिलता है जो परंपरा से हटकर नई परंपरा का निर्माण करते हैं। गीतांजलि जी अपनी अन्य कहानियों में भी वक्त की बारीक पकड़ रखती है। सुख-दुख और उसके बीच मनुष्य की जिंदगी इनकी साधना के केंद्र में है। विरोधी मनोभाव और विचारधारा की हकीकत को खोलना इनका प्रिय विषय है।
इनकी कहानियों में ‘चकरघिन्नी’ कहानी सबसे अलग है। स्त्री को, जो आधुनिक नारी है, अपने को स्थापित करने में निस्सहायता का दारुण और विकट संघर्ष प्राप्त है, वह इस कहानी में दिखाई देता है। कथ्य भले ही आज के समय में नवीन न हो पर नवाचारी कथा लेखन से पाठक रूबरू होता है।
उपन्यासों की अगर हम बात करें तो गीतांजलि जी खाली जगह, तिरोहित, माई आदि प्रसिद्ध उपन्यासों की रचना की है। खाली जगह उपन्यास में उस हिंसा को केंद्र में रखा गया है जो रोजमर्रा की जिंदगी बन गई है। शहर में बम फटना और लाशों की शिनाख्त आम बात है। इन सबके बीच जो एक खाली जगह बची है उस पर उनकी निगाह जाती है। खाली जगह उपन्यास कल्पना और यथार्थ के साथ जिंदगी को भी चित्रित करता है। इसमें दुख और संवेदना की दृष्टि देखते ही बनती है। इस उपन्यास में एसेंट्रिक हादसे भी है जो भाषा का एक नया रचाव प्रस्तुत करता है। यह रचाव गीतांजलि जी की निजी विशेषता की जा सकती है। यथार्थ भी यहां दो रूपों में आया एक ऑब्जेक्टिव दूसरा सब्जेक्टिव। उपन्यास में इन दोनों का तालमेल देखते ही बनता है। इस दृष्टि से गीतांजलि श्री परिपक्व और सफल सिद्ध होती हैं। वह अपनी तरफ से कुछ नहीं करती हैं जो भी करना है वह घटनाएं करती हैं।
इनके उपन्यासों में सत्य है, घोर यथार्थ है, पर वह पर्त दर पर्त छिपा हुआ है। यहां यह बताना आवश्यक है कि कहानी सुनाने की जो परंपरा है गीतांजलि उसे तार-तार कर देती हैं और अपनी नवीनता के साथ कथा को पर उपस्थित करती हैं। तिरोहित उपन्यास का कथानक बिल्कुल नए ढंग से घटता है और पाठक घटनाओं को पढ़ता जाता है, महसूस करता जाता है। उपन्यास के केंद्र में घटनाक्रम के बजाय चरित्र व पात्र तथा उनके आपसी रिश्तो की बारीकियां है। इन्हीं के माध्यम से कथा आगे बढ़ती है। जाहिर सी बात है कि गीतांजलि जी ने और तराशी हुई भाषा का इस्तेमाल किया है। तिरोहित उपन्यास में पात्रों की इच्छाएं, वासना और जिंदगी के वादे अद्भुत गद्य शैली सामने आते हैं। बच्चों और लल्ला के अंतर मन की व्यथा बड़े खूबसूरत ढंग से व्यक्त की गई है। जीवन की परिस्थितियां, स्वयं का भोगा यथार्थ और समाज की वास्तविकता प्रकट करना ही उपन्यास का मुख्य ध्येय रहा है। इस उपन्यास में रोजमर्रा की जिंदगी और उसके स्वाद की महक विद्यमान है।
माई उपन्यास में पारंपरिक स्त्री है जो घरेलू जीवन का निर्वाह करती है परंतु बच्चे नए जमाने के हैं, वह माई को ड्योढ़ी से बाहर की दुनिया दिखाना चाहते हैं। आजादी के बाद औपनिवेशिक मूल्यों के बीच मध्यवर्गीय जीवन उसके सुख-दुख की परत इस उपन्यास में बड़ी बखूबी उभर कर आये है। इन सबके बीच एक औरत की जिंदगी का सच्चा चित्र खींचने में गीतांजलि जी सफल सिद्ध होती हैं। नई पीढ़ी की सोच रज्जू को उसके आदर्श को नहीं समझते हैं। इन्हीं सबके बीच कहानी का पूरा ताना-बाना बुनता रहता है।
रेत समाधि में ऐसी स्त्री है जो हर स्त्री के अंदर छिपी हुई है। वह अपने आप में साधारण है परंतु अपनी प्रस्तुति में असाधारण है। उपन्यास में ऐसा संसार है जो परिचित है और अपने जादुई अंदाज में हमारे सामने आता है। उपन्यास रेत समाधि मौत के दरवाजे पर जिजीविषा की कथा को कहता है। रेत समाधि अपने औपन्यासिक शैली के लिए विशेष प्रसिद्ध रहा है।
गीतांजलि जी के कथा साहित्य में सशक्त पात्र रोजी किन्नर जैसे हैं। रोजी किन्नर के माध्यम से देश की सीमाओं के बंटवारे मनुष्य के जीवन पर कैसे असर डालते हैं और उसके जीवन को कैसे बदल देते हैं, इस का सजीव चित्रण इनकी परिपक्व कलम से हुआ है। स्त्री-पुरुष तथा देश-परदेश की सीमा के बंटवारे संवेदनाएं नहीं समझती है। यही संवेदनाएं कसक उत्पन्न कराती है जो मानवीय पीड़ा का बखान कहती है। रोजी किन्नर पात्र नहीं जीवन बनकर पाठक के सामने उपस्थित होती है।
भाषा और शिल्प को विषय वस्तु के अनुरूप ढालने का गुण गीतांजलि जी को बखूबी आता है। कहानी कहने की कला को सुरक्षित रखते हुए भी उन्होंने नयी भाषा का निर्माण किया है। गीतांजलि के शिल्प में बिंब की प्रधानता है पर यह बिंब कहीं से भी क्लिष्ट नहीं है बल्कि सहज व सामान्य है। भाषा की दृष्टि से अगर हम देखें तो इनकी भाषा परिवेश के अनुकूल और बोलचाल की साधारण भाषा है। इनकी कहानियों में सीधा सपाट कुछ भी नहीं है पर कहने की शैली बिल्कुल सहज व सपाट है।
गीतांजलि का शिल्प भाषा में ऐसी ध्वनि उपस्थित करता है कि पाठक उस दुख, उस पीड़ा से ध्वन्यात्मक रूप से जुड़ जाता है। इसके साथ ही इनके कथा साहित्य में भाषा का प्रवाह ऐसा है कि लगता है कि हर पृष्ठ अपने आप में एक रंगमंच बन गया है। सब कुछ आंखों के सामने नाटक रूप में घटित हो रहा है जबकि सत्य है कि हम पढ़ रहे हैं देख नहीं रहे है। कुछ जगहों पर मुहावरात्मक शैली में बातों को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करने का गुण भी गीतांजलि जी में है। जैसे कि वह कहती है कि ‘आग में हाथ डालकर आग को नहीं पहचाना जाता है।’
अपने कथा विन्यास व् अद्भुत शिल्प के माध्यम से गीतांजलि श्री ने हिंदी साहित्य ही नहीं विश्व साहित्य में नयी पहचान बनाई है। उनको बुकर पुरस्कार मिलना इसका साक्ष्य है।