मित्रों को स्नेहिल नमस्कार
प्रेम की कोई सीमा नहीं, प्रेम की कोई परिधि नहीं, प्रेम का कोई आकार नहीं, वह तो निराकार है मित्रों।
वह जीवन की पहली साँस से लेकर आखिरी साँस में समाया हुआ है| वह किसी एक रिश्ते से नहीं एक नाज़ुक डोरी से भी वैसे ही बँधा है जैसे ईश्वर का आशीष! न जाने हम प्रेम को क्यों तारीखों में, पलों में, रिश्तों में कैद करते हैं? हम प्रेम की बात करते हैं तो क्यों लोग मुँह बाए देखते रह जाते हैं? कभी सोचा है कि प्रेम नहीं तो हम कहाँ हैं?
आज प्रेम की एक अलग तस्वीर पर बात करती हूँ और सुनाती हूँ एक ऐसी संवेदनशील रिश्ते की कहानी जो कुछ जानते होंगे, सब नहीं। अच्छा लगेगा आपको प्रेम की बुलंदी का यह चित्र देखकर!
अभी रक्षाबंधन का पावन पर्व गया है। स्मृति सामने आकर अपनी कहानी स्वयं सुनाने लगती है और हमें बहुत सी ऐसी घटनाओं से परिचित कराती है जिनसे हम परिचित नहीं होते, जिन्हें जानते ही नहीं।
ऐसी ही एक कहानी.. नहीं, कहानी नहीं जीवन की वास्तविकता को जानने का प्रयास करते हैं।
वह अनोखा भाई’:
(रक्षा बंधन पर आप सबके लिए) महादेवी वर्मा को जब ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, तो एक साक्षात्कार के दौरान उनसे पूछा गया था, “आप इस एक लाख रुपये का क्या करेंगी?” उनका उत्तर था,
“न तो मैं अब कोई कीमती साड़ियाँ पहनती हूँ, न कोई सिंगार-पटार कर सकती हूँ। ये लाख रुपये पहले मिल गए होते तो भाई को चिकित्सा और दवा के अभाव में यूँ न जाने देती।” कहते-कहते उनका दिल भर आया और आँखों में आँसुओं की नमी थिरकने लगी।
कौन था उनका वो ‘भाई’? कौन से गहन प्रेम से भीग उठीं थीं महादेवी जैसी साधिका की आँखें? आइए जानते हैं, यदि जानते भी हैं तो एक बार उसे पुन: ताज़ा कर लेते हैं।
हिंदी के युग-प्रवर्तक औघड़-फक्कड़-महाकवि पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी के मुँहबोले भाई थे। दोनों भाई -बहन के प्रेम की बात जानकर कौन होगा जिसके चेहरे पर मुस्कान न आएगी और फिर आँखें आंसुओं से नम न हो जाएंगी। उनकी एक घटना से उनकी सरल-तरल प्रेम का ख़्याल आसानी से आ जाता है।
एक बार वे रक्षा-बंधन के दिन सुबह-सुबह जा पहुंचे अपनी लाडली बहन के घर और रिक्शा रुकवा कर चिल्लाकर द्वार से बोले, “दीदी, जरा बारह रुपये तो लेकर आना।” महादेवी रुपये तो तत्काल ले आई, पर पूछा,
“यह तो बताओ भैय्या, यह सुबह-सुबह आज बारह रुपये की क्या जरूरत आन पड़ी?”
हालाँकि, ‘दीदी’ जानती थीं कि उनका यह दानवीर भाई रोज़ाना ही किसी न किसी को अपना सर्वस्व दान कर आ जाता है, पर आज तो रक्षा-बंधन है, आज क्यों? निराला जी सरलता से बोले, “ये दुई रुपया तो इस रिक्शा वाले के लिए और दस रुपये तुम्हें देना है। आज राखी है ना! तुम्हें भी तो राखी बँधवाई के पैसे देने होंगे।”
ऐसे थे फक्कड़ निराला और ऐसी थी उनकी वह स्नेहमयी ‘दीदी’। हम इस प्रेम को किस वृत्त में बाँध सकते हैं जो सरल है, निष्कपट है, निष्कंटक है?
भाई – बहन का यह पावन रिश्ता एक ऐसी रोशनी से भरा हुआ है जहाँ अंधकार की कोई जगह ही नहीं है।
गर्व है हमें मातृभाषा को समर्पित ऐसे निराले कवि भैया निराला जी और बहना कवयित्री महादेवी पर!
भाई बहन के सहज, सरल व निःस्वार्थ प्रेम की इस घटना से हम जीवन में संबंधों के वास्तविक प्रेम को समझ सकें, संबधों का सम्मान कर सकें।
यही आशा व विश्वास
सब प्रेम सहित आनंद में, सुख से सहज, सरल जीवन व्यतीत कर सकें, ऐसी शुभाकांक्षा
स्नेहिल शुभकामनाएँ