कविता-कानन
मेरी हत्या
छपाक की ध्वनि
नदी में कूदने की
चिड़ियों की चहचहाहट
नदी की तरफ दौड़ते
क़दमों की खट-पट
और पकड़ो, निकालो की आवाज़ें
इन सब के पहले था
एक गहरा सन्नाटा
सन्नटा मेरे अन्तर्मन का
कोई गवाह नहीं कि
यह एक हत्या है।
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और तलाश अभी अधूरी है
बंधु मेरे! ज़रा गौर से ढूंढो
क्या दिख पड़ता है तुम्हें कोई
मेरे जैसा चुपचाप डरा-सा
या ख़ुश चंचल बालक
इस नदी के साथ-साथ
वो भी आया था कुछ दूर तक
जीवन की तलाश में
नदी को तुम अपना ही समझो
कहा था कुछ पत्थरों ने
जब था वो बीच बहाव में
और कि यहाँ सदा बना रहेगा
तुम्हारे आने का एक प्रतीक
वो अनाड़ी फँस गया जाने कहाँ
कि जीवन ख़त्म होने को है
और तलाश अभी अधूरी है।
– सत्येंद्र कुमार