कविता-कानन
नये पुराने
पुरानी हो रहीं हैं वो चीज़ें
जो कल नई थीं
जिन्हें पाने के लिए
दिल में तड़प रही
कई दिनों तक
जिनके लिए बनीं अनेकों योजनाएँ
की गई जोड़ तोड़ मेहनत
जुटाए गए साधन
तब कहीं अपनी हो सकीं
कुछ चीज़ें
जिनके मिलने पर
पुलकित रहा मन
वे ही सब चीज़ें
धीरे-धीरे
अब पुरानी होने लगीं
किसी को दुख नहीं
इनके पुराने होने पर
चिंता है अब
कुछ और नया हासिल करने की
और ये भूले हुए हैं
वे भी हो रहे हैं पुराने
कहीं हो रही है तैयारी
उनके द्वारा घेरी गई जगह
खाली कराने की।
खोजा जा रहा है
कुछ नया
जगह भरने के लिए
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बाबा का झोला
झेनु वाले बाबा की पोटली से
कुछ अधिक जादुई लगता था
पुराने पेंट को काटकर सिया
बाबा का झोला
यूँ तो लटका रहता था खूंटी पर
खाली ही
कई दिन तक
पर सप्ताह के उस एक दिन
जब लगती थी गाँव की हाट
उस रोज़
दिखाता था जादुई कारनामे
बाबा का झोला
हाथ में झोला ले
निकलते थे बाबा
घर से हाट
बस उनके आने तक
दरवाजे पर टकटकी लगाए रहते थे हम
लौटते ही बाबा के
रहता था इंतज़ार
जादुई झोला खुलने का
बाबा सबको पास बुलाकर
झोले से निकलते एक-एक चीज़
और धरते जाते हमारे हाथों में
जलेबी का दौना,
फूटे चने,
ककड़ी, खरबूजा
प्लास्टिक का झनझुना
फुँदने वाली गुड़िया
अम्मा की चूड़ियाँ
और न जाने क्या-क्या
निकलता इस झोले से
बड़ा प्यारा था
बाबा का झोला
मेरे पास मेरे बच्चों के लिए
नहीं है कोई जादुई झोला
– मंजूषा मन