कविता-कानन
माटी की मूरतें
बाहुबली परिस्थितियों से लोहा लेता
चुनौतियों की चिल्लाहटों से परेशान
एक रिमोट कंट्रोल रोबोट की तरह
वह चलता है, रुकता है
रुकता है, चलता है
एक जोड़ी बेटियों का तथाकथित बोझ
उसे विचलित करता रहता है
शीघ्र ही
सूर्य की प्रखर किरणों-सी बेटियाँ
उसके जीवन के अंधकार को निगल लेती हैं
त्रिभुज की दीवारें मजबूत हो उठती हैं
जीवन की पथरीली पगडंडियाँ
चौड़ी सड़कों में तब्दील हो जाती हैं
परंतु सड़क के रंग से रंग मिलाकर छिपे हुए
काले-भूरे अजगरों का एहसास
नहीं हो सका उन्हें
हिम्मत और हौसले की पर्याय दोनों बेटियाँ
उन सड़कों पर चलती हुईं
अनभिज्ञ थीं उन छद्मवेशियों से
जो शिकार की ताक में रहते हैं
और एक दिन ख़त्म हो गयीं
कस्तूरी गंध कंचन काया की
बच गईं
दो मौन माटी की मूरतें
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नीली लकीर
सदियों बाद
मैं लौटती हूँ
और तुम्हारे सामने
खड़ी हो जाती हूँ
इंतज़ार करती हूँ
कि तुम पहचान लो-
मन भारी, पलकें बोझिल!
क्षितिज के आर-पार खींची गई
मैं वही लकीर हूँ
धुँधली-सी!
पतली-सी!
अपने पतलेपन में बोझ थामे
एक गहरे एहसास का
– डॉ. रंजना शरण