कविता-कानन
संवेदनाओं का स्वार्थ
सावधान से विश्राम की जो ये पहल है
अब कालजयी है, अशक्त है
अभिप्राय से पृथक है
विवेचनाओं से विलग है
भावनाओं की भंगिमा है
और वयम् से अहम् है
ये सब कुछ नहीं बस
निज संवेदनाओं का स्वार्थ है
ये, ये जो अश्रुलिप्त लोचन है
ये, ये जो रुग्ण रुदन है, ये व्यथा है
व्यवहार जो गौण है, शिथिल है
उदासी जो ये प्रखर है,
ये सम्बन्धों का अभिसार है
आपक्ता का संभार है
और यही संवेदनाओं का स्वार्थ है।
ये, वो जो चली गई जो दे कर
एहसासों का, ममत्व की, वात्सल्य की गाथा है
ये, ये जो बंधन है, लगाव है
अभिप्राय है अपनत्व का
ये, ये जो उनके खो जाने का यथार्थ है
ये सत्य नहीं है, ये छदम् है
ये, ये जो गौण उपस्थिति है उनकी
ये अमरत्व का प्रमाण है
और ये, ये जो मेरा संताप है
आत्मचिंता का अभिलेख है
स्वयं का संघार है और निजता का प्रमाण है
ये, ये कुछ नहीं बस संवेदनाओं का स्वार्थ है
ये, ये जो मानवीय लगाव है, संवाद है
संवेदनाएं हैं, भावनाएँ हैं
ये स्वार्थ निहित है,
ये भी मैं और हम से अभिप्रेरित है
ये, ये जो जीवन की अभिलाषा है
ये स्वार्थों की परिक्रमा है
शैशव से शव यात्रा तक,
अपेक्षाओं का अवस्थाएँ है
ये, ये जो स्वरुप है सम्बन्धों का
यही स्वार्थ है
और ये, ये जो स्वार्थ है
संवेदनाओं का जननी है
और ये स्वार्थ का संवेदना है
या संवेदनाओं का स्वार्थ है।
*************************
गणिका
टिस तो होगी मन में
एक लम्बी फेहरिस्त रही तो होगी मन में
दर्द की, वर्जनाओं की
सामाजिक स्वीकृति की
कहीं अतीत और भाग्य को
कोस तो रही होगी वो
ईश्वर भी है? इस बात का
भ्रम भी तो हुआ होगा कभी
खुद की मनोरंजिका की उपमा, उफ़्
वेदना तो देती होगी कहीं
शारीरिक सुख और यौन वर्जनाएँ
भ्रांतियाँ फैलाती तो होगी मन में
लोलुपता और सुख जैसे शब्द
सिर्फ शब्द रहे होंगे उसके लिए
ढूँढती तो रही होगी वो मायने दर्पण के
अपने अक्स में अपने परछाई में
असमंजस में, स्थूल सहवास में
छद्म प्रेम में, वियावन विश्व में
और सामाजिक व्यवस्थाओं में
सजग संस्कृतियों में, संस्कारों में
नए चेहरे रोज और उसके संग
व्यभिचार की नई गाथा,
एहसासों के मलिन चित्र
और रंगहीन विश्व…..श्श्श्श
कहीं उसे विश्वास न हो गया हो
कि यही इंसानियत का चरित्र है!
– भास्कर आनन्द