माघे मासे महादेव: यो दास्यति घृतकम्बलम।/ स भुक्त्वा सकलान भोगान अन्ते मोक्षं प्राप्यति।।
अर्थात, माघ मास में जो व्यक्ति भगवान महादेव को घी और कम्बल का दान करता है, वह इस लोक में सभी प्रकार के भौतिक सुखों का आनंद लेता है और अंत में मोक्ष प्राप्त करता है। यह श्लोक माघ मास में दान की महिमा का वर्णन करता है। शास्त्रों के अनुसार, इस महीने में दान-पुण्य, तप और ध्यान का विशेष महत्व है। इस दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। मान्यता है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता है एवं शुद्ध घी एवं कम्बल का दान मोक्ष की प्राप्ति करवाता है।
मकर संक्रांति माघ माह में आती है। संस्कृत में मघ शब्द से माघ निकला है। मघ शब्द का अर्थ होता है धन, सोना-चांदी, कपड़ा, आभूषण आदि, इसलिए इन वस्तुओं के दान आदि के लिए ही माघ माह उपयुक्त है। अतः इस दिन किये गये दान पुन्य से उन्हें सौ गुणा ज्यादा फल प्राप्त होता है।
मकर संक्रान्ति के अवसर पर गंगास्नान एवं गंगातट पर दान को अत्यन्त शुभ माना गया है। इस पर्व पर तीर्थराज प्रयाग एवं गंगासागर में स्नान को महास्रान को संज्ञा दी गयी है। मान्यता के अनुसार, नदी के जल में स्नान से सभी पाप तो नष्ट होते ही हैं, साथ में धन, तैभव और रूप, सौंदर्य आदि की वृद्धि भी होती है।
सामान्यत: सूर्य सभी राशियों को प्रभावित करते हैं, किन्त् कर्क व मकर राशियों में सूर्य का प्रवेश धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त फलदायक है। यह प्रवेश अथवा संक्रमण क्रिया छ:-छ: माह के अंतराल पर होती है। भारत देश उत्तरी गोलार्ध में स्थित है। मकर संक्रान्ति से पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में होता है अर्थात् भारत से अपेक्षाकृत अधिक दूर होता है। इसी कारण यहां पर रातें बड़ी एवं दिन छोटे होते हैं तथा सर्दी का मौसम होता है। किन्तु मकर संक्रान्ति से सूय उत्तरी गोलार्ध की ओर आना शुरू हो जाता है। अतएवं इस दिन से रातें छोटी एवं दिन बड़े होने लगते हैं तथा गरमी का मौसम शुरू हो जाता है। दिन बड़ा होने से प्रकाश अधिक होगा तथा रात्रि छोटी होने से अंधकार कम होगा।
प्रसिद्ध गायत्री मंत्र विशेष रूप से सूर्य को ही समर्पित है। सूर्य को तेज, ओजस एवं गति का प्रतीक तथा अधिष्ठाता माना गया है। सूर्य की उपस्थिति से ही पृथ्वी पर जीवन संभव है। भारत के ऋषि-मुनियों ने निर्विवाद रूप से सूर्य को जड़ चेतन की आत्मा माना है। भारतीय काल चक्र सूर्य की गति के मुताबिक ही चलता है। भारत में सौर संवत्सर का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण दिन मकर संक्रान्ति को माना गया है। शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायण को देवताओं की रात्रि अर्थात् नकारात्मकता का प्रतीक तथा उत्तराथण को देवताओं का दिन अर्थात् सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। मकर संक्रान्ति पर सूर्य की राशि में हुए परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना माना जाता है।
प्रकाश अधिक होने से प्राणियों को चैतन्यता एवं कार्य शक्ति में वृद्धि होगी। वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा, नेत्र, हृदय और ज्ञान कहा गया है, जबकि चंद्रमा सोम और मना है। पृथ्वी देह है। इन तीनों के विशिष्ट संयोग से ही पूरी सृष्टि संचालित होती है। जब भगवान सूर्य धनुराशि का भ्रमण पूरा करके मकर राशि में प्रवेश करते हैं, उस संक्रमण चाल को मकर संक्रांति कहा जाता है।
मकर का अर्थ है, जो मंगल या कल्याण प्रदान करे। पुराणों और धर्मशास्त्रों ने इसे अत्यधिक पुण्यदायी संक्रांति माना है! इसका कारण यह है कि यहीं से सूर्य अपने गमन पथ के दक्षिणी मार्ग का परित्याग करके उत्तर मार्ग पर चलना आरंभ करते हैं। इसलिए इस पर्व को उत्तरायण भी कहा जाता है।
मकर संक्रान्ति हिन्दुओं का प्रमुख पर्व है। मकर संक्रान्ति पूरे भारत में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। यह त्योहार जनवरी माह के चौदहवें या पन्द्रहवें दिन ही पड़ता है क्योंकि इसी दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में एक दिन पूर्व 13 जनवरी को ही मनाया जाता है।
बिहार, उत्तर प्रदेश में यह मुख्य रूप से ‘दान का पर्व’ है। इलाहाबाद में यह पर्व माघ मेले के नाम से भी जाना जाता है। समूचे उत्तर प्रदेश में इस व्रत को खिचड़ी के नाम से जाना जाता है तथा इस दिन खिचड़ी खाने एवं खिचड़ी दान देने का अत्यधिक महत्व होता है। महाराष्ट्र में इस दिन सभी विवाहित महिलाएँ अपनी पहली संक्रान्ति पर कपास, तेल व नमक आदि चीजें अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करती हैं। तिल-गूल नामक हलवे के बाँटने की प्रथा भी है। लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं -“लिळ गूळ ध्या आणि गोड़ गोड़ बोला” अर्थात तिल गुड़ लो और मीठा मीठा बोलो।
बंगाल में इस पर्व पर स्नान के पश्चात तिल दान करने की प्रथा है। यहाँ गंगासागर में प्रति वर्ष विशाल मेला लगता है। तमिलनाडु में इस त्योहार को पोंगल के रूप में चार दिन तक मनाते हैं। असम में मकर संक्रान्ति को माघ-बिहू अथवा भोगाली-बिहू के नाम से मनाते हैं। राजस्थान में इस पर्व पर सुहागन महिलाएँ अपनी सास को वायना देकर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। साथ ही महिलाएँ किसी भी सौभाग्यसूचक वस्तु का चौदह की संख्या में पूजन एवं संकल्प कर चौदह ब्राह्मणों को दान देती हैं। इस प्रकार मकर संक्रान्ति के माध्यम से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की झलक विविध रूपों में दिखती है।
हमारे ऋषि-मुनियों ने आयुर्वेद में तिल का महत्व धार्मिक दृष्टि से तो है ही, स्वास्थ्य के लिए भी इसका विशेष महत्व बतलाया है। धार्मिक, मांगलिक में पूजा-अर्चा, हवन आदि में तिल की उपस्थिति रहती के माघ कृष्ण एकादशी को तो ‘षटतिला एकादशी’ ही कहा जाता है।
तिलस्गायी तिलोद्ठर्ती तिलहोमी तिलोदकी। / तिलभुक् तिलदाता च षट्तिला: पापनाशना:। अर्थात तिल मिश्रित जल से स्नान, तिल के तेल से शरीर को मालिश, तिल से ही यज्ञ में आहुति, तिल मिले जल का पान, तिल का भोजन और दान इस तरह छह प्रकार से तिल का उपयोग करने से मकर संक्रांति का पुण्य फल प्राप्त होता है और पाप नष्ट हो जाते हैं। इस समय बहती नदी में स्नान पुण्यदायी होता है।
भारत में मकर संक्रान्ति के पूण्य पर्व पर मुख्य आहार तिल और गुड़ को महत्व दिया गया है। आयुर्वेद के अनुसार तिल गुड़ शरद् ऋतु के अनुकूल स्वास्थ्यवर्धक और शरीर के लिये उपयोगी है। इसीलिये हमारे स्वस्थ जीवन के लिये तिल से निर्मित लड्डू, तिलकुट्टी, तिल की गजक, रेवड़ी आदि के सेवन का विधान किया गया है। आयुर्वेद ऋषि-मुनियोंने तिल को स्वादिष्ट और शरद रुचिकारक बनाने के लिये तिल के समान गुणकारी ऋतु के अनुकूल गुड़ को ही उपयुक्त समझा। हमारे धार्मिक, मांगलिक सभी उत्सवों के अवसर पर गुड़ के महत्व को समझ कर गुड़ खाना शुभ माना जाता है। इसलिये भारत में मकर संक्रान्ति के पूण्य पर्व पर मुख्य आहार तिल और गुड़ को महत्व दिया गया है। तिल के लड्डुओं को बहु-बेटियों को भेजने, मन्दिरों में चढ़ाने तथा गरीबों को दान देने की भी परम्परा है।
हर साल सूर्य का धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश 20 मिनट की देरी से होता है। इस तरह हर तीन साल के बाद सूर्य एक घंटे बाद ओर हर 72 साल एक दिन की देरी से मकर राशि में प्रवेश करता है। इस तरह 2080 के बाद मकर संक्रांति 16 जनवरी को पड़ेगी। इसी संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि राजा हर्षवर्धन के समय में यह पर्व 24 दिसंबर को पड़ा था। मुगल बादशाह अकबर के शासन काल में 10 जनवरी को मकर संक्रांति थी। शिवाजी के जीवन काल में यह त्योहार 11 जनवरी को पड़ा था।
ग्रीक के इतिहास से पता चलता है कि प्राचीन ग्रीक लोग भी वर-वधू को सन्तान वृद्धि के निमित्त तिलों का पकवान बांटते थे। इससे स्पष्ट है कि तिलों का प्रयोग प्राचीानकाल से ही विशेष गुणकारक माना जाता रहा है। प्राचीन रोमन लोगों में मकर संक्रान्ति के दिन अंजीर, खजूर और शहद अपने इष्ट मित्रों को भेंट देने की रीति थी। यह भी मकर संक्रान्ति पर्व की सार्व॑त्रिकता और प्राचीनता का परिचायक है।
मकर संक्रांति का मौका हो और पतंगोत्सव की चर्चा न हो तो… यह कैसे संभव हो सकता है। मकर संक्रांति पर भारत में पतंग उड़ाने का रिवाज है। कहीं-कहीं सामूहिक पतंग उत्सव आयोजित किए जाते हैं तो कहीं लोग अपने घरों की छतों पर ही पतंग उड़ाना पसंद करते हैं। आसमान रंग-बिरंगी खूबसूरत पतंगों से भर जाता है।
चीनी यात्री फ़ाह्यान और ह्यून त्सांग पतंग भारत में लाए। यह कागज और बांस के दंचे से बनी होती थी। लगभग सभी पतंगों का आकार एक जैसा ही होता था। आज पतंग उड़ाना भारत में काफी लोकप्रिय है। गुजरात में महिलाओं को पतंग उ़ड़ाना बचपन से सीख में मिलता है। तिल्ली के लड्डू, मूंगफली की पट्टी बनाने के साथ वे पतंगबाजी में भी निपुण होती हैं। गुजरात की हर घर की छत भरी नजर आती है। इसमें अपने पिता, भाई या पति, ससुर, देवर, जेठ के साथ पतंग उड़ाती घर की महिला में भी वही उत्साह देखने को मिलता है, जो कि पुरुषों में। पूरे उल्लास के साथ आसमां पर छेड़खानी देर तक की जाती है। आमतौर पर अपनी सखी-सहेलियों के साथ मौज-मजा, हंसी-ठिठोली करने वाली हर लड़की इस दिन अपनी पतंग से किसी दूसरी पतंग की छेड़खानी करती है। हमारे समाज में महिलाओं की ऐसी स्वतंत्रता के पर्व चंद ही हैं। गुजरात का हर घर संक्रांति के पहले से ही डोर और पतंग से भरने लगता है। हां, खरीददारी जरूर घर के पुरुष करते हैं मगर जब उड़ाने की बारी आती है तो घर की महिलाओं के मांजे और मजे दोनों अलग होते हैं, उन्हें मांगकर कुछ देर पतंग नहीं उड़ानी पड़ती।