अनन्य भक्ति का हृदय स्पर्शी प्रसंग है। गर्ग मुनि के आश्रम में एक ऋषि आ कर कहते है गुरुदेव आश्रम के द्वार पर एक नेत्रहीन गाने वाला आया है, आप से भेंट करने की आज्ञा चाहता है, गाने वाले का मधुर स्वर और प्रभु भक्ति में डूबे भावपूर्ण शब्द मुनि के कान में पडे। उसे सुन कहते हैं आदर से अंदर ले आओ और हमारी कुटिया में बिठाओ कीर्तन में उसने जिस परम सत्य को वर्णित किया है उससे मैं मुग्ध हो गया हूं। मुनि कहते हैं कवि की परिकल्पना में जो व्याख्या है उसे कवि दृष्टि ही समय की सीमाओं को लांघ कर उस सत्य को देख सकती हैं। नेत्रहीन गायक मुनि के चरणों में प्रणाम कर कहते हैं प्रभु आप ब्रह्म जी के पुत्र हैं इसलिये आपको सर्व समर्थ मान कर कहता हूं यथा शक्ति आपकी आज्ञा का पालन करेंगे । यह सुन मुनि कहते हैं कहो क्या कहना है।
गायक कहते हैं कि सुना है भगवान श्री कृष्ण रूप में अवतार लेकर धरती पर विराजमान हैं। यह सुन वह आश्चर्य करने लगते हैं नेत्रहीन भक्त कहते है उनके दर्शन मात्र के लिये थोडी देर के लिये ही सही आंखें प्रदान कर दीजिए। जिससे मैं उन्हें एक बार देख लूं फिर भले ही आप मुझे नेत्रहीन कर दीजिए। मुनि कहते हैं आपके अंतर्मन में अभी तक उनके दर्शन नहीं हुए ! यह सुन आंखें बंद कर अंतरमन में देखते हुए कहते हैं एक अलौकिक बालक को शिशु अवस्था से बडा होते हुए देखा है ! मुनि कहते हैं हां यह वही हैं। तब प्रसन्न हो वह कहते हैं यह रूप बडे बूढे तपस्वियों को हर नहीं दिखता जिसे आप देख रहे यदि आपकी आंखों को खोल दिया जाए तो आपको अनेक दृश्य दिखाई देंगे तो सोच लीजिए इसी एक ही दिव्य रूप को मन में स्थिर रखना है या माया द्वारा निर्मित अनेक रूपों को ? यह सुन नेत्रहीन गायक कहते है कि अब मुझे समझ आया कि प्रभु ने मुझे नयन हीन शरीर देकर मुझ पर कितनी बड़ी कृपा की है।
(संदर्भ : प्रसंगोल्लेख प्रसिद्ध फिल्म निर्माता निर्देशक और रामायण एवं कृष्ण सीरियल के निर्देशक रामानंद सागर )
हिंदी साहित्य में भक्तिकाल के सबसे अग्रणी कवियों में सूरदास का नाम मूर्धन्य कवि के रूप में स्थापित है। उनके लिखे साहित्य को भक्ति का श्रृंगार कहा जाता है। सगुण काव्य धारा के वह प्रमुख कवि हैं कृष्ण भक्ति काव्यधारा के ऐसे कवि हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं में वात्सल्य विरह और विचार के स्वरूप को कृष्ण की भक्ति में प्रेम और विरह का चित्रण किया है उनके काव्य में श्रृंगार रस का विस्तृत वर्णन हुआ है। इसलिये उन्हें श्रृंगार सम्राट भी कहा जाता है।
भले ही वह नेत्रहीन थे लेकिन उनके पदों में भगवान श्रीकृष्ण के रूप का जो सजीव चित्रण हुआ है आज भी वह भक्ति की अनुपम मिसाल है। कहा जाता है कि प्रतिदिन प्रभु की श्रृंगार सेवा में उपस्थित रहते और भगवान का जैसा शृंगार होता, उसी का वर्णन पदों में करते। एक बार श्रृंगार करने वाले पंडित ने उनकी परीक्षा लेने के लिये भगवान का श्रृंगार वस्त्रों के बजाए फूलों से किया और उन्हें पद गाने के लिये कहा। इस पर जो पद उन्होंने सुनाया, उसे सुन सब नतमस्तक हो गये।
सूरदास तीन भाई थे लेकिन नेत्रहीन होने के कारण परिजनों द्वारा सदा उनकी उपेक्षा की जाती। सभी उन्हें नयनहीन होने के ताने देते और पर्याप्त भोजन भी नहीं देते जिससे दुखी रहते। सभी बालक घर के बाहर खेलते कूदते पर वह घर में ही रहते। एक दिन घर के बाहर से कीर्तन गाते भजन मंडली के भजनों को सुना और उन्हीं की तरह गाने लगे। अगली बार जब भजन मंडली घर के समीप पहुंची, तब उसी के पीछे भजन कीर्तन करते हुए चल पड़े। दूर जाने के बाद भजनीकों ने नदी किनारे भोजन कर उनसे कहा, हमारे साथ कहां तक चलोगे! यहीं से लौट जाओ। वे नहीं लौटे और वहीं बैठ भजन गाने लगे जिन्हें सुन पथिक मुग्ध हो दान देते। एक बार कुछ साधुओं ने उनके कीर्तन को सुना और इतने विभोर हो गये कि उनकी कुटिया बना दी। वहीं रह कर प्रभु स्तुति में जिन पदों को गाया और रचा, उसे सुन उनकी ख्याति इतनी बढ़ गयी कि उनके कीर्तनों को सुनने के लिये दूर-दूर से लोग आने लगे।
कहा जाता है इस प्रसिद्धि का समाचार जान स्वामी वल्लभाचार्य उनकी कुटिया में पधारे और भगवद भजनों को सुन मोहित हुए। उनकी प्रतिभा पहचान कर उन्हें साथ चलने को कहा तथा उन्हें हरि लीला- गायन का आदेश दिया और गोवर्धन पर स्थापित श्री नाथ जी के मंदिर में भजन कीर्तन का कार्य सौंपा। तब से सूरदास की प्रतिभा भगवान कृष्ण की रसमय लीलाओं के गायन और सृजन की ओर- अधिक प्रवृत्त हुई। इसमें नये-नये पदों की अभिव्यक्ति होती। इन्हीं पदों का संग्रह “ सूर सागर ” है। इस भक्ति रस को उनके गुरु वल्लभाचार्य के दर्शन का विशाल रूप आलोकित कर रहा है। कहा जाता है ” एक बार- चलते-चलते वह कुंए में गिर गये कई आवाज़ें देने के बाद भी वहां से निकालने और बचाने कोई नहीं आया। सात दिनों तक वहां रहे एक दिन छोटा सा अदृश्य हाथ आया और उसने इस संकट से उबारा।
यह हाथ किसी बालक का था जिसे भगवान कृष्ण का बाल रूप कहा जाता है इसके बाद रुक्मणि ने श्री कृष्ण से पूछा कि हे भगवन आपने सूरदास की जान क्यों बचायी? तब उन्होने कहा कि सच्चे भक्तों की हमेशा मदद करनी चाहिये।
कुछ विद्वानों का कहना है कि कुंए से निकालते समय श्री कृष्ण ने उन्हें नेत्नों का प्रकाश प्रदान किया जिससे उन्होने मन भर उनके दर्शन किये तब प्रभु ने पूछा भक्त वरदान मांगो ! कहा आपके दर्शन के बाद मांगने को कुछ नहीं रहता। फिर से नेत्रहीन कर दीजिए जिससे आप मन ही में बसे रहें। इसे सुन प्रभु ने उनकी भावना के अनुरूप कहते हुए कहा मेरा वास तुम जैसे तपस्वी भक्तों में है। उनकी प्रभु भक्ति का यह चरमोत्कर्ष है।
सूरदास का मानना था कि ईश्वर अपने भक्तों पर असीम कृपा करते हैं इसलिये ईश्वर को भक्ति वत्सल हित कारी कहा। “ ऐसे कान्हा भक्त हितकारी ,प्रभु तेरो बचन भरोसौ सांचो “संसार से विराग और ईश्वर से राग उनकी भक्ति का मूल आधार था। महाकवि सूरदास ने अपनी सभी रचनाओं को ब्रज भाषा में लिखा। सभी पद श्री कृष्ण से संबंधित है। इसमें सरल और प्रभाव पूर्ण शैली का प्रयोग किया गउनमें और उनके गुरु वल्लभाचार्य की आयु में केवल 10 दिनों का अंतर था गुरु इस शिष्य को लेकर गोवर्धन पर्वत पर जाते, वहीं बैठ वह अपने पदों की रचना करते और इक तारे को बजाते हुए उसका गायन कर गुरु को सुनाते। उन्होंने अपनी कल्पना शक्ति के माध्यम से श्री कृष्ण की लीलाओं का मोहक वर्णन किया, जिन्हें पढ़ कर लगता है जैसे अपनी आंखों से देख उनका वर्णन कर रहे हों। दोहों मे श्रीनाथ जी के विविध रूपों का सुंदर शैली में वर्णन है। उनके द्वारा लिखित पांच ग्रंथ है जिन्हे सूर सागर, सूर सारावली, साहित्य लहरी, नल दमयंती और ब्याहलों शीर्षक से जाना जाता है। “सूर सागर“ को उनकी सबसे लोकप्रिय कृति माना जाता है जिसमें उनके रचित एक लाख से अधिक पद हैं।
उनका जन्म 1478 ई में दिल्ली के पास सीही गांव में हुआ था, जो मथुरा आगरा मार्ग के किनारे पर है। वास्तव में सूर के काव्य में युग जीवन की आत्मा का स्पंदन है जो दूसरे भक्त कवियों में नहीं मिलता। अपने लेखन में उपदेश के बजाय आदमी की भावात्मक प्रवृत्तियों पर प्रकाश डाला। उनकी कही बात सीधे हृदय में उतरती है। इस बात को उनके जीवन से जुड़ी इस घटना से समझा जा सकता है। प्रभु के दर्शन करने के लिये मंदिर गये। बहुत भीड़ थी फिर भी कतार में खडे अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे भीड़ इतनी थी कि वहां धक्का मुक्की शुरू हो गयी। दर्शन के लिये साथ खडे कुछ लोगों ने कहा, आपकी आंखें नहीं हैं फिर आप कैसे दर्शन करेंगे? उन्होंने उत्तर दिया मेरी आंखें नहीं हैं लेकिन जिसके दर्शन की कामना लिये खडा हूं, उसकी तो आंखें हैं वह मुझे देखेगा। उसकी तो करोडों आंखें हैं ! उससे क्या छिपा है? इस उत्तर को सुन सभी निरुत्तरित रह गये ।
उनका रचा बहुत लोकप्रिय अंश है- “मैया मोहिं दाऊ बहुत खिजायो / मो सों कहत मोल को जीहों ते जसुमति कब जायो / कहा करों इहि रिस के मारे खेलन हां नहिं जात / पुनि पुनि कहत कौन है माता को है तेरो तात // गेरे नंद जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात /चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हंसत सबै मुसुकात// तू मोहिं को मारन सीखी दाउहिं कबहूं न खीजे / मोहन मुख रिस की ये बातें जसुमति सुनि सुनि रीझे //सबहु कान बलभद्र चबाई जनमत ही को धूत / ये स्थाम मोहिं गोधन की सौं माता तू पूत // इसमें श्री कृष्ण की बाल लीला का एक चित्रण है।
बडे भाई बलराम उनके श्याम रंग पर चिढाया करते थे। एक दिन कन्हैया ने मैया से बलराम की शिकायत की। कहने लगे दाऊ ग्वाल बालों के सामने मुझे बहुत चिढ़ाते हैं वह कहते हैं मैया ने तुझे मोल लिया है ॥ इसी कारण मैं छोड़ने भी नहीं जाता बार बार कहते हैं तेरे माता – पिता कौन क्यों कि वह तो गोरे हैं लेकिन तू सांवले रंग का है इस पर भी तू मुझे मारने को दौडती है ।श्री ऋण की बातों को सुन मैया भावुक हो कहती है बलराम तो बचपन से ही चुगल खोर और धूर्त है (सूरदास कहते है जब श्री क्रण्ण मैया की बातें सुन कर भी नहीं माने तब यशोदा बोलीं कि कन्हैया मैं गठओं की सौगंध खा कर कहती हूं कि तू मेरा ही पुत्र है और मेँ तेरी मैया हूं ।
इसी प्रकार उनके दोहे ” अंखिया हरि दरसन की प्यासी / देख्याौं चाहत कमल नैन कौ निसि दिन रहति उदासी // आए ऊधे फिरि गये आंगन ,डारि गये फांसी /केसरी तिलक मोतिन की माला वृंदावन के बासी //काहू के मन को कोऊ नहीं जानत लोगन के मन हांसी / सूरदास प्रथा तुम्हरे दरस कौ ,करवत हों कासी//जिसका अर्थ है मेरी आंखें कृष्ण की एक झलक के लिये प्यासी हैं। मैं कमल के दर्शन वाले कृष्ण को देखना चाहता हूं। मैं उसे नहीं देखता और इसी कारण से मेरा मन उदास रहता है। हे प्रभु आपके मस्तक पर केसर का तिलक. शोभित है और गले में मोतियों की माला सुशोभित है। आप वृंदावन के वासी हैं और आप से स्नेह लगाया है और यह व्यथा मेरे गले की फांस की तरह है। आप मुझे घास की ढेरी के समान छोड गये हो। उनके पदों और दोहों को कई प्रसिद्ध गायकों ने भी गाया। सूरदास ने अपने भजनों में कृष्ण भक्ति से ओत प्रोत जिन भावों को प्रस्तुत किया , वह इतने मनोहारी हैं कि उन्हें सुनने की जिज्ञासा सदा बनी रहती है उदाहरण के लिये “ मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो “ दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अंखियां प्यासी रे “ और “ प्रभु मेरो अवगुण चित ना धरो “ आदि को सुना जा सकता है। आज के समय में उनका भजन ‘” रे मन धीरज क्यों न धरे ” बहुत प्रासंगिक है।
कहा जाता है कि नेत्रहीन होने के कारण सूरदास के पदों और भजनो को कलम बद्ध करने का काम उनके साथी ब्रजवासी गोपाल किया करते। सूरदास विट्ठल नाथ द्वारा स्थापित अष्टछाप के अग्रणी भक्त कवि थे और पुष्टि मार्ग में उनका बहुत आदर था। सूरदास ने जिन भावों को अभिव्यक्ति दी वह पैसे ,प्रापर्टी और पावर पर नहीं टिका है इसमें लोगों का जुडाव सिर्फ कारोबार से न हो कर दिल से दिल का होता है। आपसी प्रेम की ऐसी पंखुरियों को वह बिखरते है जिसकी आधार शिला प्रेम है। उनका काव्य जीवनोत्सव का काव्य है जिसमें एक स्वस्थ आदर्श को खडा करते हैं जो हर किसी को प्रिय लगता है। अतः वह 21 वीं शताब्दी में अधिक प्रासंगिक लगते हैं। जिस समाज में अपने अपनों को ही ठग रहे हों ,आत्मीयता रेगिस्तान में तब्दील हो, केवल मतलबी स्वार्थ का चेहरा बनी हो, और प्रेम ने मोल भाव का गणित सीख लिया हो तब सूरदास की रचनाएं ऐसे सच्चे हृदय के बीज का अंकुरण करती है जो आडंबर से मुक्त आपसी प्रेम को आमंत्रित करता है। उनके जीवन का अंत काल निकट आया तब गोस्वामी विट्ठल नाथ ने उनको पुष्टि मार्ग का विशाल जहाज कहते हुए लोगों को संबोधित करते हुए कहा था “ पुष्टिमार्ग को जहाज जात है सो जाको कछु लेना होय सो लेऊ “। 1580 में इस महान भक्त महाकवि ने देव लोक गमन किया।’
आज जब जीवन में सब कुछ चट पट हासिल करने की होड मची हो और जीवन में अधीरता की धमाचौकड़ी ने मन को अशांत कर रखा हो तब उनके लिखे भजन की यह पंक्ति अधिक अर्थ पूर्ण लगती है इसे सुन लगता है जैसे वह आज के समय पर लिखा गया हो। “रे मन धीरज क्यों न धरे.