भारत में विरासत की विविधता और विविधता विभिन्न समुदायों के बीच मौजूद संबंधों की प्रकृति को दर्शांते है। विरासत हमारे दैनिक जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह हमारे परिवर्तन की यात्रा का प्रमाण है। हम अपनी समृद्ध विरासत से जुड़कर अपने भविष्य पर अधिक प्रभाव प्राप्त कने के लिए अपने अतीत से सीखते हैं। विरासत का संरक्षण विभिन्न पहलुओं की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। सांस्कृतिक विरासत भौतिक विज्ञान की कलाकृतियों और एक समूह या समाज की अमूर्त विशेषताओं की विरासत है जो पिछली पीढ॒यों से विरासत में मिली है, वर्तमान में बनाए रखी गई है और भविष्य की पीढयें के लाभ के लिए प्रदान की गईं है। सांस्कृतिक विरासत एक समुदाय द्वारा विकसित जीवन जीने के तरीकों की अभिव्यक्ति है और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चली जाती है जिसमें रीति-रिवाजों, प्रथाओं, वस्तुओं, कलात्मक अभिव्यक्तियों, मूल्यों आदि को शामिल किया जाता हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 14 जून पुणे से करीब 30 किलोमीटर दूर देहू में संत तुकाराम मंदिर का उद्घाटन किया। 17वीं सदी के संत तुकाराम का जन्मस्थान देहू है। दंतकथाओं के अनुसार संत तुकाराम को विद्वान रामेश्वर भट द्वारा इंद्रायणी नदी में अपने छंदों की पुस्तकों को से छंदों की पुस्तकों को नदी में डुबाने के लिए कहा और घोषणा की कि यदि यह वास्तव में भगवान कर रहे हैं, तो वह उन्हें बेदाग लौटा देंगे। संत तुकाराम 13 दिनों तक ध्यान में नदी के तट पर पत्थर की एक पटिया पर बैठे रहे, जिसके बाद पानी से अप्रभावित किताबें नदी में तैरती मिलीं।
उनके सम्मान में प्रधानमंत्री मोदी एक मंदिर शिला राष्ट्र को समर्पित करेंगे। शिला मंदिर एक पत्थर (शिला) के स्लैब को समर्पित मंदिर है जिस पर संत तुकाराम ने 13 दिनों तक ध्यान किया था। शीला के पास मंदिर में संत तुकाराम की नई मूर्ति स्थापित की गई है। साथ ही पीएम मोदी महाराष्ट्र के पंढरपुर में विठोबा मंदिर की पैदल यात्रा करने वाले संत तुकाराम के भक्तों के साथ बातचीत करेंगे। तुकाराम के भक्त, वारकरी, आषाढ़ और कार्तिक के हिंदू महीनों में पंढरपुर की तीर्थ यात्रा शुरू करने से पहले शिला मंदिर में प्रार्थना करते हैं।
एक प्रेरक प्रसंग है एक क्रोधी व्यक्ति जिसके क्रोध के कारण उसके परिवार और अन्य लोग दुखी रहते। वह संत के पास आश्रम में गया और उनसे पूछने लगा गुरुदेव आप हर परिस्थिती में शांत और प्रसन्न चित्त कैसे रहते हैं इसका रहस्य बताएं। संत ने उत्तर दिया कि “मैं इसलिये यह सब कर पाता हूं कि मुझे हब रहस्य मालूम है“ शिष्य ने चौंकते हुए पूछा मेरा भला क्या रहस्य हो सकता है! कृप्या बताएं। संत ने दुखी स्वर में कहा कि “तुम अगले एक सप्ताह में मरने वाले हो“ संत की इस बात को सुन कर वह निराश हो गया और उनका आशीर्वाद ले कर चला गया। जीवन के बचे हुए केवल सात दिनों के बारे में सोचने लगा। उस समय से उसका पूरा स्वभाव बदल गया वह सभी से प्रेम पूर्वक मिलता, अधिकतर समय प्रभु भक्ति में लगाता, जीवन में किये गये पापों का प्रायश्चित करता। जिन से उसने अभद्र व्यवहार किया उनसे माफी मांगता। प्रभु ध्यान में मगन रहते हुए उसे सात दिन हो गये। उसने सोचा मृत्यू पूर्व संत से फिर मिल लूं। उनके पास पहुंचा और कहने लगा गुरुजी आशीर्वाद दीजीये। संत ने कहा पुत्र “शतायु भवः” यह आशीववांद सुन कर वह हैरान रह गया।
संत ने पूछा पिछले सात दिन कैसे बीते! तब उसने कहा मेरे इन अंतिम दिनों को कैसे गंवा देता! सबसे प्रेम पूर्वक मिला, जिनसे दुर्व्यवहार किया था उनसे क्षमा मांगी, गलतियों के लिये प्रायश्चित किया और शेष समय प्रभु भक्ति में लीन रहा। तब संत ने कहा “बस यही तो, मेरे अच्छे व्यवहार का राज़ है।
“मैं जानता हूं कि मैं कभी भी मर सकता हूं इसलिये सभी से प्रेम पूर्वक व्यवहार करता हूं। शिष्य ने संत की उसे जीवन की महत्व पूर्ण शिक्षा देने के लिये मृत्यु का भय दिखाया गया। संत की बात को उसने गांठ से बांध लिया और उनके चरणों में नमन कर चला गया यह संत कोई और नहीं महान संत तुकाराम थे।
इस प्रसंग की सीख है, क्रोधी स्वभाव नहीं रखना चाहिये यह विनाशकारी होता है क्रोध का जवाब क्रोध से देने पर अकारण के विवाद बढ जाते हैं ऐसी परिस्थिती में एक को शांत रहना चाहिये। यह पाठ आज अधिक प्रासंगिक है क्योंकि यह “ऐंगर मैनेजमेंट“ के लिये अच्छी सीख है।
दूसरा प्रसंग देखिये “एक बार तीर्थ यात्रा पर जाने वाले भक्तों ने संत तुकाराम से निवेदन किया कि वह भी उनके साथ तीर्थ यात्रा पर चलें। संत ने अपनी असमर्थता बताते हुए उन्हें एक कडवा कद्दू देते हुए कहा कि मेरा आना संभव नहीं है लेकिन इस कद्दू को आप अपने साथ ले जाइये और जहां-जहां भी स्नान करें, इसे भी पवित्र जल में स्नान करा दीजीये। तीर्थ यात्रियों ने उसे ले लिया और जहां-जहां गये उसे स्नान करवाया और उसे भी दर्शन के लिये ले गये यात्रा पूरी कर संत तुकाराम को वह कह लौटाया। उन्होने सभी को भोजन पर आमंत्रित किया। तीर्थ यात्रियों को विविध पकवान परोसे गये इसमें तीर्थ में घूम आये कद्दू की सब्जी विशेष रूप से बनवायी गयी यात्रियों ने खाना शुरू किया और सबने कहा कि “यह सब्जी कड॒वी है” । संत तुकाराम ने आश्चर्य बताते हुए कहा कि “यह तो उसी कद्दू की बनी है जो तीर्थ स्नान कर आया है (बेशक यह तीर्थ करने के और दर्शन के बाद भी इसमें इसमें कडवाहट है“।
यह सुन सभी यात्रियों को बोध हो गया कि “हमने तीर्थ यात्रा तो कर ली लेकिन अपने मन और स्वभाव को नहीं बदला तो तीर्थ यात्रा का कोई मतलब नहीं है हम भी कह जैसे कडवे ही रह गये“। कथा का सार बहुत बडा और ध्यान देने योग्य है तीर्थ यात्रा करने के बाद मनुष्य को निर्मल और शुद्ध होना चाहिये, इन दोनों ही प्रसंगों का सार आज अधिक प्रासंगिक और अर्थपूर्ण है । यह अपने को टटोलने, उसमें सुधार के लिये इंस्पायर करते दरअसल हमारे भक्त कवियों और संतों ने अपने तपस्वी जीवन और कर्म से जिन वृहद मानव गुणों को अपने क़्तित्व से विभूषित किया उसकी महत्ता आज अधिक नज़र आती है। अवगुणों से मुक्त रहने के पाठ संत तुकाराम ने 17 वीं शताब्दी में ही बता दिये थे।
मानवता और उसकी विचारधारा के वह ऐसे प्रखर प्रवक्ता थे जिन्होंने जीवन दर्शन को नयी दिशा दी। उनके कथनानुसार सभी मनुष्य ईश्वर की संतान हैं अतः सभी समान हैं उनका स्थान वारकरी संप्रदाय के शिखर संत के रूप में असाधारण है। इस तथ्य की वह उम्दा मिसाल हैं कि एक सामान्य आदमी संसारी रीती रिवाज़ों को निभाते हुए कैसे महान संत बना। किशोरावस्था में ही उनके माता पिता का देहावसान हो गया। जिससे वह दुखी रहते। इसी समय देश में पड़े भीषण अकाल के कारण उनकी पहली पत्नी व छोटे बालक की भूख से छटपटाते हुए मृत्यु हो गयी। विपत्तियों की ज्वाला में झुलसते हुए भी अपने मनोबल को कभी टूटने नहीं दिया।
वह कहते हैं कि जब हम मन से राम नाम में तल्लीन होते तभी जिव्हा से निकलने वाला राम नाम रूपी अस्त्र ही हमें सदा प्रसन्न चित्त रखेगा इस संदर्भ में कहे गये उनके इस अंश को देखिये-
“बार बार काहे मरत अभागी / बहुरि मरन से क्या तोरे भागी / ये ही तन करते क्या न होय, भजन भगति करे बैकुंठ जाए / राम नाम मोल नहिं बेचे कवरि / वो हि सब माया छुरावत / कहे तुका मनसु मिल राखों / राम रस जिव्हा नित्य चाखो// “ अर्थात बार बार तुम क्यों मरना चाहते हो। क्या इसका कोई उपाय तुम्हारे पास नहीं है अरे भाई यह शरीर बडा अद्भुत है। उससे क्या नहीं हो सकेगा। भक्तिपूर्ण ईश्वर भजन से हमें बैकुंठ प्राप्ति हो सकती है। राम नाम लेने के लिये हमें कौडी भी खर्च नहीं करनी पडती। राम नाम की शक्ति प्रपंच की माया से मुक्ति दिला सकती है।
संत तुकाराम अपने अभंग और भ्रक्ति पूर्ण कविताओं और कीर्तनों के लिये प्रसिद्ध हैं। उनकी कविताएं विट्ठल और विठोबा के लिये समर्पित हैं जो विष्णु भगवान का ही अवतार माने जाते हैं। कहा जाता है कि एक बार उनके एक ईर्ष्यालु मित्र ने उन्हें अपने अभंगों की सभी पोधियों को पोटली में बांध कर इंद्रायणी नदी में बहा देने को कहा। दयालु और संत प्रकृति के तुकाराम ने उन्हें नदी में बहा दिया कुछ समय बाद उन्हें इसका बहुत दुख हुआ। भगवान विट्ठल मंदिर के पास जा कर भरे मन से बैठ गये। तेरह दिनों तक भूखे प्यासे वहीं पड़े रहे। उनकी दशा देख कर स्व्यं विट्रल भगवान प्रकट हुए और कहा कि “तुकाराम तुम्हारी पोथियां नदी के बाहर पडी हैं, संभालो अपनी पोथियों को। इन्हें पाकर वह प्रभु॒ का बारंबार आभार मानने लगे।
संत का पूरा नाम तुकाराम अंबिले था। उन्हें संत श्रेष्ठ जगद्गुरु, तुकोबा और तुकोबारया नाम से भी जाना जाता है। उनकी रचित रचनाओं को मराठी में “अभंग गाथा“ और “तुकाराम गाथा“ के नाम से जाना जाता है। जिसमें 4500 अभंग संग्रहित हैं। अपने कीर्तनों को संगीतमयी रूप भी दिया ताकि इन्हें सामूहिक गायन के रूप में भक्त गा सकें।
संत तुकाराम के मुख से समय-समय पर सहज रूप से परिस्फुटित होने वाली अभंग वाणी के अतिरिक्त इनकी अन्य कोई विशेष साहित्यिक कृति उपलब्ध नहीं है। तुकाराम ने अपनी साधक अवस्था में संत ज्ञानेश्वर और नामदेव, इन पूर्वकालीन संतों के ग्रंथों का गहराई तथा श्रद्धा से अध्ययन किया था। इन तीनों संत कवियों के साहित्य में एक ही आध्यात्म सूत्र पिरोया हुआ है।संत तुकाराम जी को चैतन्य नामक साधु ने ‘रामकृष्ण हरि’ मंत्र का स्वप्न में उपदेश दिया था। इसके बाद इन्होंने 17 वर्ष संसार को समान रूप से उपदेश देने में व्यतीत किए।
उनके विचारों में कितनी दूर दृष्टी थी इसे उनके कहे अनमोल वचनों में से कुछ के द्वारा समझा जा सकता है। ‘संकल्प के बल से ही फल की प्राप्ति होती है, जो मनुष्य आघात सहन करते हुए भी अपनी सज्जनता को नहीं खोता, वही संत है“ “बादल वर्षा करते समय यह नहीं देखते कि भूमि उपजाऊ है या बंजर वह दोनों को ही समान रूप से सींचते है। उसी तरह गंगा का पवित्र जल उत्तम और अधम का विचार किये बिना सबकी प्यास बुझाता है” “दया, क्षमा, शांति ये तीनों सज्जनों की बस्ती हैं“ और जिस प्रकार नमक के बिना खाना बेस्वाद और फीका लगता है, उसी प्रकार बातूनी के कथन निस्सार और अरुचिकर लगते हैं।“ इत्यादि चार शताब्दियों पूर्व कहे गये उनके यह वचन वर्तमान में अधिक अर्थ पूर्ण लगते हैं ।
वास्तव में वह ऐसे संत थे जिन्होंने तीन “भ” भगवान, भक्त और भगवन्नाम पर अधिक बल दिया। आज आम चर्चाओं में कमाई, प्रापर्टी, इन्वेस्टमेंट और पहुंच की बातें होती हैं लेकिन कितने लोग हैं जो भगवननाम की चर्चा करते हैं। इसे इग्नोर कर हम अपनी कितनी हानि कर रहे हैं इस सच को संत ने बहुत पहले ही बता दिया था । मानव हित को उन्होंने सर्वोपरि माना और प्रभु भक्ति की ऐसी अमृत धारा को प्रसारित किया जिसमें जीवन का सार और कल्याण है। वह कितने महान संत थे उन्हें इस घटना से समझा जा सकता है संत तुकाराम की कीर्ती छत्रपति शिवाजी महाराज तक पहुंची तब उन्होने उन्हें सम्मानित करने के लिये बहूमूल्य वस्तुएं और अपार संपत्ति भेजी लेकिन संत ने उन्हे लौटाते हुए कहा कि मुझे पांडुरंग के सिवा कुछ नहीं चाहिए। इससे छत्रपति शिवाजी महाराज बहुत प्रभावित हुए और उनके दर्शन के लिये पधारे। कहा जाता है कि उन्हें आध्यात्मिक भक्त का ज्ञान प्रदान करने के लिये संत तुकाराम ने ही उनकी भेंट स्वामी समर्थ रामदास से करवायी जिन्हें शिवाजी महाराज के गुरु के रूप में भी मान्यता मिली।
उनके अनुसार मनुष्य के जीवन की पांच बडी खाइयां हैं जिनसे सदा दूरी बनाये रखनी चाहिये पर-धन, पर-स्त्री, पर-निंदा, पर-हिंसा, और पर-मान, इसी प्रकार जीवन में उन्नति करने के लिये इन पांच को सदा साथ रखें। सज्जनों का संग, पठन पाठन अध्ययन और मनन, भक्ति। भक्ति की शक्ति से ही आप अपने पांडुरंग के दर्शन कर पायेंगे, चित्त शुद्धी- इसके होने पर हमारा शरीर हमारे लिये काम करने लगेगा जीती और आत्म साक्षात्कार- अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान। उनके कथनानुसार “जो विपत्तियों पर सवार हो जाये, न कि विपत्तियां उस पर वही सच्चा भक्त होता है। जो विपत्तियों से दब जाये, घबरा जाये वह भक्त कैसे बनेगा?
इस महान संत का जन्म पुणे के देहू कस्बे में हुआ था। उनकी जन्म तिथि को लेकर दिद्वानों में मत भिन्नता है। अपनी पहली पत्ली रखुमाबाई के देहांत के बाद उन्होने दूसरा विवाह जीजाबाई से किया। कहा जाता है वह उन्हें उलाहनाएं देती रहती। उनकी तीन संतानें हुई।
उनके जीवन पर आधारित फिल्म “संत तुकाराम“ मराठी, कन्नड, और तमिल में बनी। इनके जीवन पर मराठी में विष्णुपंत पागनीस ने फिल्म “संत तुकाराम“ (सन 1940) में बनायी जिसे अपार सफलता मिली इसे देखने के लिये दर्शक थियेटर में जाते तो अपने जूते-चप्पल बाहर छोड देते। भारतीय सिनेमा में यह फिल्म मील का पत्थर साबित हुई।
महाराष्ट्र के वारकरी जब पंढरपुर की यात्रा पर जाते हैं तब ‘ज्ञानोबा माऊली तुकाराम“ का जय घोष करते हैं। कहा जाता है कि अपने इस महान भक्त को जीवन के अंतिम समय में भगवान स्वयं विमान में बैठा कर वैकुंठ धाम ले गये। अपने भवित पूर्ण विचारों और वाणी से उन्होंने जीवन को सार्थक बनाने के जो मार्ग दर्शाये उन्हें देख कर हम कह सकते हैं वह “भक्ति का अमृत हैं“।
सर्वप्रथम अयोध्या, फिर काशी उसके पश्चात श्रीरामानुजाचार्य जी की प्रतिमा की स्थापना और अब संत तुकाराम की शिला स्थापना के पश्चात यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी ने एक तरह से देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की स्थापना कर दी है।