23 जनवरी: नेताजी सुभाष की जयंती पर विशेष
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जन्म का जन्म 23 जनवरी 1897 को हुआ। वे भारत के महान स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा, बना।इसी के साथ “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा” का नारा भी उनकी अमिट पहचान बन गया है।
नेताजी का जन्म कटक उड़ीसा में हुआ था और वो ब्रिलिएंट स्टूडेंट थे। स्कूल और यूनिवर्सिटी दोनों में हमेशा उनकी टॉप रैंक आती थी। 1918 में उन्होंने फिलॉस्फी में ग्रेजुएशन फर्स्ट क्लास में पूरी की। 1920 में उन्होंने सिविल सर्विस परीक्षा इंग्लैंड में पास की थी, हालांकि कुछ दिनों बाद 23 अप्रैल 1921 में उन्होंने महात्मा गांधी के भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में शामिल होने के कारण इस्तीफा दे दिया था।
1939 में वो गांधीजी द्वारा समर्थित कांग्रेस उम्मीदवार श्री पट्टाभिसीतारमैया को हराकर कांग्रेस अध्यक्ष बनें।सुभाष बाबू की जीत पर गांधी ने कहा कि ‘सीतारमैया की हार मेरी हार है।’ नतीजतन पूरी कांग्रेस कार्य समिति ने इस्तीफा दे दिया। समिति के सदस्य बोस के साथ काम करने को तैयार नहीं थे।
लेकिन गांधीजी और सुभाषबाबू को लेकर बहुत सारी ऐसी चीजें हैं जो अफवाहों से जन्मी हैं। कुछ ऐसी भी चीजें हैं जो हम जानते नहीं। या जानने की कोशिश नहीं करते। एक बहुत बड़ा सवाल है जो हमेशा जानबूझकर पूछा जाता है कि गांधी के विरोध के कारण उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा था। यह बात पूर्णतः गलत है क्योंकि गांधी ने यह जरूर कहा था कि सुभाषचंद्र से उनका रास्ता मिलता नहीं है और गांधी उनसे सहमत नहीं थे लेकिन दोनों एक दूसरे का आदर बहुत करते थे। कांग्रेस के बड़े नेता बड़े दिल के लोग थे उनके कामकाज के तरीके में मतभेद अक्सर रहते थे।
जब सुभाष बाबू कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए तो जाहिर है कि गांधी उनके पक्ष में नहीं थे। परंतु उसके बाद गांधी ने उनसे बार बार यह कहा कि आप कार्यसमिति आप स्वयं चुनेंगे अपनी मर्जी से। और यह चीज खिंचती रही क्योंकि गांधी का कहना था कि इसमें मुझे नहीं आना चाहिए। क्योंकि आपने चुनाव जीता है तो पूरी कार्यसमिति आपके मुताबिक होना चाहिए। जो लोग इस दौर के इतिहास को ठीक से पढ़ते नहीं हैं जानते नहीं हैं वे इस तरह की अफवाहें उड़ाते भी हैं क्योंकि उन्हें गांधी का कद छोटा करना है पर वो ऐसा करके सुभाष बाबू का कद भी छोटा कर देते हैं।
चार फरवरी, 1939 को ‘यंग इंडिया’ में गांधी लिखते हैं, ‘…तो भी मैं उनकी (सुभाष बाबू की) विजय से खुश हूं और चूंकि मौलाना आज़ाद द्वारा अपना नाम वापस ले लेने के बाद डॉ पट्टाभि को चुनाव से पीछे न हटने की सलाह मैंने दी थी, इसलिए यह हार उनसे ज्यादा मेरी है।’
गांधी आगे लिखते हैं, ‘इस हार से मैं खुश हूं….सुभाष बाबू अब उन लोगों की कृपा के सहारे अध्यक्ष नहीं बने हैं जिन्हें अल्पमत गुट वाले लोग दक्षिणपंथी कहते हैं, बल्कि चुनाव में जीतकर अध्यक्ष बने हैं। इससे वे अपने ही समान विचार वाली कार्य-समिति चुन सकते हैं और बिना किसी बाधा या अड़चन के अपना कार्यक्रम अमल में ला सकते हैं. …सुभाष बाबू देश के दुश्मन तो हैं नहीं। उन्होंने उसके लिए कष्ट सहन किए हैं। उनकी राय में उनका कार्यक्रम और उनकी नीति दोनों अत्यंत अग्रगामी हैं। अल्पमत के लोग उसकी सफलता ही चाहेंगे।’
जब गांधीजी से यह कहा गया कि सुभाष बाबू ने आजाद हिंद फौज बना ली है और वे हिटलर और तोजो से मिल गए हैं तो गांधीजी ने कहा कि मैं उनके रास्ते से सहमत नहीं हूं, परन्तु इस रास्ते पर चलकर अगर सुभाष बाबू जीत कर आते हैं तो मैं उन्हें मुबारकबाद जरूर दूंगा, लेकिन मैं उनके रास्ते के साथ नहीं हूं। तो यह हिम्मत थी उन दोनों में एक दूसरे से असहमति जाहिर करने की।
गांधी ने कहा था कि हिटलर से समझौते का कोई सवाल ही नहीं उठता क्योंकि हिटलर मानवता को नष्ट करने की तरफ बढ़ रहे हैं।
हमें उस संदेश को भी सुनना चाहिए जो दो अक्तूबर, 1943 को बैंकाक रेडियो से प्रसारित किया था। उसमें नेताजी ने कहा था, ‘…मन की शून्यता के ऐसे ही क्षणों में महात्मा गांधी का उदय हुआ। वे लाए अपने साथ असहयोग का, सत्याग्रह का एक अभिनव, अनोखा तरीका। ऐसा लगा मानो उन्हें विधाता ने ही स्वतंत्रता का मार्ग दिखाने के लिए भेजा था। क्षण भर में, स्वतः ही सारा देश उनके साथ हो गया। हर भारतीय का चेहरा आत्मविश्वास और आशा की चमक से दमक गया. अंतिम विजय की आशा फिर सामने थी….आने वाले बीस वर्षों तक महात्मा गांधी ने भारत की मुक्ति के लिए काम किया और उनके साथ काम किया भारत की जनता ने। ऐसा कहने में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यदि 1920 में गांधीजी आगे नहीं आते तो शायद आज भी भारत वैसा ही असहाय बना रहता। भारत की स्वतंत्रता के लिए उनकी सेवाएं अनन्य, अतुल्य रही हैं. कोई एक अकेला व्यक्ति उन परिस्थितियों में एक जीवन में उतना कुछ नहीं कर सकता था।’
23 अगस्त, 1945 को जब यह खबर फैल गई कि विमान-दुर्घटना में सुभाषचन्द्र बोस की मृत्यु हो गई, तो अगले ही दिन अमृत कौर को पत्र में गांधी लिखते हैं- ‘सुभाष बोस अच्छे उद्देश्य के लिए मरे। ‘हरिजन’ में गांधी लिखते हैं- ‘आज़ाद हिंद फौज का जादू हमपर छा गया है. नेताजी का नाम सारे देश में गूंज रहा है. वे अनन्य देशभक्त हैं उनकी बहादुरी उनके सारे कामों में चमक रही है। उनका उद्देश्य महान था, पर वे असफल रहे। असफल कौन नहीं रहा? हमारा काम तो यह देखना है कि हमारा उद्देश्य महान हो और सही हो। सफलता यानी कामयाबी हासिल कर लेना हर किसी के किस्मत में नहीं लिखा होता. इससे ज्यादा तारीफ मैं नहीं कर सकता, क्योंकि मैं जानता था कि उनका काम विफल होने ही वाला है. और अगर वह अपनी आजाद हिंद फौज को विजयी बनाकर हिंदुस्तान में ले आए होते, तो भी मैंने यही कहा होता, क्योंकि इस तरह आम जनता में जागृति नहीं फैल पाती…’
27 अप्रैल, 1947 को आजाद हिन्द फौज के लोगों को फिर से संबोधित करते हुए गांधीजी ने कहा था, ‘आजाद हिन्द फौज का नाम अहिंसक आजाद हिन्द फौज रखना चाहिए न? (हंसते-हंसते), क्योंकि मुझसे आप कोई दूसरी बात नहीं सुन सकेंगे। सुभाष बाबू तो मेरे पुत्र के समान थे. उनके और मेरे विचारों में भले ही अंतर रहा हो, लेकिन उनकी कार्यशक्ति और देशप्रेम के लिए मेरा सिर उनके सामने झुकता है।’
गांधीजी और नेताजी की चर्चा एक साथ करते समय क्या हम इन आत्मीय प्रसंगों को भी पढ़ने और समझने की जरूरत समझेंगे? गांधीजी और नेताजी जैसे लोगों का दिल तो बहुत बड़ा था. उनके आपसी संबंधों को समझने के लिए हमें भी अपना दिल थोड़ा बड़ा करना पड़ेगा. वही उनके प्रति एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
6 जुलाई 1944 आजाद हिंद रेडियो पर ब्रॉडकास्ट जाने वाला था। सुभाष बाबू ने राष्ट्र के नाम बोलना शुरू किया- भारत की आजादी की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है. आजाद हिंद फौज हिंदुस्तान की धरती पर लड़ रही है. सारी दिक्कतों के बावजूद आगे बढ़ रही है. ये हथियारबंद संघर्ष तब तक चलेगा जब तक कि ब्रिटिश राज को देश से उखाड़ नहीं देंगे। दिल्ली के वॉयसराय हाउस पर तिरंगा फहरेगा।
सुभाष बाबू ने पॉज लिया. सबको लगा कि अब कुछ नारे लगेंगे। पर ऐसा नहीं हुआ। सुभाष बाबू ने कहा- राष्ट्रपिता, हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई में हम आपका आशीर्वाद मांगते हैं। सबकी आंखें नम थीं। सुभाष बाबू ने बता दिया था कि गांधी ही सेनापति हैं। बाकी लोग सैनिक। जिनको गांधी और सुभाष में तुलना करनी होती है, उनको ये जरूर जानना चाहिए।
नोट- यह लेख मौलिक नहीं है। विभिन्न स्रोतों से अलग अलग अंश उद्धरत हैं।
संकलन: अवधेश पांडे