पाकिस्तान की वरिष्ठ पत्रकार, लेखिका और स्तंभकार ज़ाहिदा हिना द्वारा लिखित –
18 जनवरी 1955 की वह उदास दोपहर थी, जिस दिन लाहौर के लोगों ने एक जनाजा उठते हुए देखा था। साथ में लोग थे तो बस इतने कि उंगलियों पर गिने जा सके। जिस घर से यह जनाजा उठा, वहाँ से रोने वाली औरतों की आवाजें बहुत मद्धिम थीं। पर देखने वालों में से कुछ ने लपककर जनाजे को कंधा दिया। कुछ क़दम साथ भी चले और फिर अपनी अपनी दुकानों में वापस चले गए। कुछ ने फुसफुसाकर यह भी कहा कि यह तो उस शराबी का जनाजा है जो रोज रात को लड़खड़ाते हुए आता था। एक ने कहा, यह मंटो का जनाजा है।
सुना है फ़हश (अश्लील) क़िस्से – कहानियां लिखता था। दूसरे ने कहा, अरे उसको दफ़नाने क्यों ले गए। क़ब्रिस्तान भी नापाक हो गया। और फिर सब आवाजें ख़ामोश हो गईं। दुखों से निढाल उनकी बीवी सफिया और उनकी मासूम बच्चियों पर क्या गुजर रही होगी, किसी को उनसे ग़रज ना थी। मंटो को गुजरे हुए करीब 67 साल हो गए हैं।
वे 1948 में पाकिस्तान पहुंचे थे और सात बरस बाद हमेशा के लिए ‘अंडरग्राउण्ड ’ हो गए। बहुत दिनों से मंटो नाम का जो खोटा सिक्का था, वह उनके जाते ही टकसाल से ढलने वाली अशर्फी हो गया। उनकी किताबें धड़ाधड़ छप रही हैं, बिक रही हैं, स्टेज ड्रामे कामयाब हो रहे हैं। उन पर फिल्में बनती हैं और करोड़ों का बिजनेस करती हैं।
हिंदुस्तान में भी डायरेक्टर नंदिता दास ने 2018 में उन पर ‘ मंटो ‘ नाम से ही फिल्म बनाई थी। लेकिन कुछ सियासी लोगों को उनसे आज भी डर लगता है, इसलिए उनके ड्रामों पर पाबंदी लगा दी जाती हैं।
1954 के आखिरी दिनों में मंटो ने मशहूर खेल समाचार ‘ नुकूश ‘ के संपादक मुहम्मद तुफैल की फरमाइश पर अपना एक ताजियतनामा (संवेदनापत्र) लिखा था। इसके लिखने के कुछ महीनों बाद ही मंटो इस दुनिया से रुख़सत हो गए थे। अपने बारे में इस सच्चाई से बस मंटो ही लिख सकते थे। इसे किस्मत का खेल कहें या कुछ और कि वे बीवी सफिया के इसरार पर बंबई की ख़ुशहाल और कामयाब फिल्मी जिंदगी को छोड़कर लाहौर चले आए थे और फिर पाकिस्तान के सबसे बड़े अदबी शहर में अजनबी से बन गए थे। वे पांच-पांच रुपए के लिए अदबी पचों और अख़बारों को अपनी तहरीरें बेचते थे। आज जो उनकी तारीफ में छपता है या उनके बारे में जो कहा जाता है, काश वे उन्हें 50 के दशक में देख या सुन लेते तो उनके दिल में कुछ तो ठंडक पड़ जाती।
वे तड़पकर अस्मत चुग़ताई और अपने दूसरे दोस्तों को यह ना लिखते कि ‘मुझे वापस मुंबई बुला लो।’ उनकी आवाज सब तक पहुंची, लेकिन किसी ने झूठी तसल्ली के दो जुमले तक ना बोले। वे अपने ग़लत फैसले के भंवर में ख़ुद ही डूब गए। कभी शराब के लिए तरसते मंटो आज यकीनन उन लोगों को देखकर मुस्कराते होंगे जो इनकी किताबों के नए एडिशन के छपने की खुशी में फ्रांसिसी वाइन बहाते हैं और मंटो को याद करके जार जार रोते हैं।
लेखिका: ज़ाहिदा हिना पाकिस्तान की वरिष्ठ पत्रकार, लेखिका और स्तंभकार
संकलन: नीरज कृष्ण