बीते माह भी बहुत-सी घटनाएं हुई। कैलेंडर तारीखें पलटता रहा, चेहरे बदलते रहे और किस्सा हूबहू! एक ईमानदार, जुझारू अफसर को सरेआम गोलियों से भून दिया गया पर इस समाचार का वही हाल हुआ जो होता आया है क्योंकि इसमें न ग्लैमर था, न मसाला। उभरती हुई कलाकार की आत्महत्या की ख़बर ने ज्यादा सुर्खियाँ बटोरीं। यह भी निश्चित तौर पर एक गंभीर, दुःखद घटना थी पर नितांत व्यक्तिगत। यदि जीते-जी इंसान की सुध लेने वाला मात्र एक भी अपना हो, तो इस तरह की प्रवृत्ति में कमी आ सकती है। दुर्भाग्य से आधुनिक सभ्यता में 'गुज़र' जाने के बाद रोने का रिवाज है और मौजूद होते समय परवाह करने वाला कोई नहीं होता! चाहे वो वक़्त हो या ज़िंदगी! अब 'मौत' संवेदना नहीं 'चर्चा' का विषय है।
एक तरफ मंदिर में आग का भयानक हादसा होता है, परन्तु ...
प्रीति अज्ञात