नालंदा
सुनो द्वारपाल-
‘जब इसे जलाने आए
ढहाने आए,
तुम खड़े थे द्वार पर
क्यों खोले तुमने किवाड़?
तुम भी तो ज्ञानी थे,
तुम्हारे दस प्रश्न से,
होती थी पहली परीक्षा।
क्या तुमने एक भी प्रश्न नहीं किया!
ज्ञान ने क्यों रास्ता दिया बल को?
‘बल तर्क नहीं करता-
दिखाता है बल्ली की नोक।
सैनिक पहले आँखे दिखाता है,
फिर निकालता है।
उबलते तेल के कड़ाहों में,
बिना जले कैसे निकलें
नहीं सिखाती कोई किताब।’
‘झूठ मत बोलो द्वारपाल
तुमने सीखा ही नहीं,
प्रतिरोध करना’।
कुछ दीवारें लड़खड़ाती सी,
खड़ी हैं अभी तक
थामे हैं जली हुई ईंटे।
मिट्टी जल कर,
और भी जिद्दी हो जाती है।
यहाँ गुरू को प्रणाम करने,
मेरे हाथ नहीं उठते।
चीखते हैं कितने ही प्रश्न!
‘अपने शिष्यों के साथ
दीवारो से सट कर
क्या तुम भी खड़े हुए थे आचार्य,
या उठाए थे हाथ?
उन्हीं के शस्त्र छीन कर
क्या किया था तुमने भी वार?
अहिंसा में विश्वास करते थे न ,
इसलिए हिंसा के साक्षी बने रहे तुम?’
चुप हैं सब ….
सच है –
किताबों से नहीं बहता लहू
उनके साथ हुई हिंसा-
सदियों तक रिसती है!
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संपादक
काश!
किसी दिन संपादक बन
कुछ पन्नों को मोड दूँ!
कहानी के अनचाहे पात्र,
जो नुकीले शब्द बन,
शिराओं में बहते हैं
उन्हें थोड़ा सा –
मखमली कर दूँ!
सारी उपेक्षाएँ ,
चाशनी में भीग
थोड़ी मीठी हो जायें!
काँच से कौंचते हैं,
कुछ पन्ने
मिट्टी में दब जायें!
मुखपृष्ठ पर हो
सपनों की बौछार
और भीतर पन्नों पर हों
सिर्फ उनके रेखाचित्र
जिन्होंने सहलाया
थामा,
हाथ पकड़
उठाया – चलाया….
काश!
किसी दिन संपादक बन
रिश्ते संपादित कर दूँ!
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सम्बन्धों के नक्शे नहीं होते
सम्बन्धों के नक्शे नहीं होते
यहाँ से चले…
वहाँ पहुँचे।
पृथ्वी सी –
घुमावदार पगडंडियाँ हैं।
कहीं राह दिखी ,
कहीं भटकन,
फिसलन…
कभी सूरज का उजास
या ध्रुव तारे से,
दिशा बताती रात….
पर सच कहूँ –
यहाँ कहीं पहुँचने का
गाँव ही निश्चित नहीं!
क्योंकि
सम्बन्धों के नक्शे नहीं होते!