1.मनुष्य न कहना
सुनो मित्र!
अभी मैंने पेश नहीं किए
मनुष्यता के वे सारे दावे
जो जरूरी हैं मनुष्य बने रहने को
इसलिए तुम मुझे मनुष्य न कहना
तुम मुझे खग या विहग भी न कहना
क्योंकि उड़ना मुझे आया नहीं
मत कहना तुम मवेशी
क्योंकि मूक रहना मुझे भाया नहीं
तुम मुझे नीर, क्षीर या समीर भी मत कहना
क्योंकि उनके जैसी पवित्रता और शीतलता
मैंने पायी नहीं
न कहना तुम मुझे धरा या वसुधा
क्योंकि उसके जैसी क्षमा और धीरता मुझमें समाई नहीं
हाँ! कुछ कहना ही चाहते हो
पुकारना चाहते हो सम्बोधन से
तो पुकारना तुम मुझे एक ऐसे खिलौने की तरह
जो टूटकर मिट्टी की मानिंद
मिल सकता हो मिट्टी में
जल सकता हो अनल में
बह सकता हो जल में
उड़ सकता हो आकाश में
उतर सकता हो पाताल में
ताकि तुम्हारे सारे प्रयोगों से बचकर
दिखा सकूँ मैं अपनी वही चिर-परिचित मुस्कान
दुखों से उबरने का अदम्य साहस
और एक सम्वेदनशील हृदय
इसके सिवाय एक मनुष्य
और दे भी क्या सकता है
अपनी मनुष्यता का साक्ष्य!
************************
2.कहीं ऐसा न हो?
हम पर्यावरण की लूट
उस हद तक करने में माहिर हैं
जहाँ जमीनें बंजर हो जाती हैं
नदियाँ सूख जाती हैं
जंगल तबाह हो जाते हैं
और दुनिया के तमाम जीव जीने को तरस जाते हैं
क्योंकि मुनाफा हमारी सबसे बड़ी जरूरत है
इस मुनाफे से ही उपजे हैं
असमानता, अशांति, असंतोष और युद्ध
हमारी यही हवस हमें इन्सान से आदमी बनाती और बाजार से जोड़ती है
इसी क्रम में एक दिन
स्वार्थ हमारा सबसे बड़ा सिद्धांत होगा
और अन्याय ताकतवर का सबसे बड़ा हथियार!
कहीं ऐसा न हो एक दिन
प्रकृति विद्रोह पर उतर आएँ
और हमारी मुनाफे की भूख
हमेशा को शान्त हो जाएँ!
*********************
3. गंगा स्नान
औरतें उमग रही हैं गंगा स्नान को
कार्तिक पूर्णिमा का महापर्व है
बड़े गुरु का जन्मदिन भी
रातों रात बना ली हैं मिठाइयाँ
चाव से चुन-चुनकर धर रही हैं अँगिया चोली
पहनने को गंगा घाट पर
वे टोलियों में गा रही हैं गीत गंगा मैया के
बढ़ा रही हैं सामूहिक समागम के सौंदर्य को
गंगा के मटमैले जल में कर स्नान
पाग रही हैं खुद को प्रेम और
पवित्रता की चाशनी में
माँग रही हैं मन्नतें धो रही हैं पाप
मना रही हैं पितरों को कर रही हैं दान
दे दे कर अर्घ्य पूर्ण कर रही हैं स्नान
पानी में उतर कर हो गई है काया कंचन
वे अनभिज्ञ हैं उन देह दृगों से
जो सिखाते हैं उन्हें कसना वक्ष
निहार रहे हैं अपनी कलुषित आँखों से
चख रहे हैं खारेपन से बनी देह का नमक
कर रहे हैं पाक को नापाक
औरतें लौट रही हैं नहाकर
सिकुड़ा सा तन और फूला सा मन लेकर
कर रही हैं अनदेखी उन घूरती आँखों की
जो हो रही हैं तृप्त देह-दर्शन से
औरतों ने हर युग में ढोया है
मर्दानी आँखों के इस मैल का बोझ
और न जाने ढोती रहेंगी
कब तक?