१.
सुषुप्त है विहान आज सूर्य को पुकार लो
विभावरी ढली परन्तु स्वप्न में डुबा गई
असत्य के लुभावने प्रयोग से मिला गई
प्रयत्न-पूर्ण चित्त के प्रयास क्षीण हो गए
व्यथा यही कि सत्य के प्रमाण को भुला गई
उजाड़ व्यर्थ-चक्रव्यूह जन्म को सँवार लो
सुषुप्त है विहान आज सूर्य को पुकार लो
रहें तटस्थ पाँव क्यों विकल्प वेग का नहीं
प्रवाह रक्त का कहे कि चिह्न मृत्यु का नहीं
उठो कि दिव्य ज्योति का विनाश एक शाप है
बढ़ो कि रुद्र-शक्ति-पुञ्ज एक ठौर का नहीं
धकेल नाव तीर से समुद्र में उतार लो
सुषुप्त है विहान आज सूर्य को पुकार लो
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२.
भोर का दृश्य है चक्षुओं में निशा
वायु के स्पर्श में कण्टकों की कला
व्योम में व्याप्त है अश्रुओं की नमी
श्वास के पाश को मृत्यु ने छू लिया
काल के कोप से त्रस्त हैं प्राण तो
शक्ति से हो रही नित्य ही प्रार्थना
पास में सूर्य है किन्तु धीमी प्रभा
हाय मस्तिष्क को घेरती है व्यथा
नीन्द में चेतना में नहीं भेद है
है धुआँ ही धुआँ नष्ट होती सुधा
चित्त में क्षोभ है स्वप्न का सत्य का
और शङ्का यही क्या रहेगा सदा?
रङ्ग कैसे भरें चित्र मैला हुआ
स्याह ने श्वेत को वेदना से भरा
रोशनी की दिशा मौन है रिक्त है
ज्ञात है ही नहीं पन्थ की स्पष्टता
प्राणियों का यही मात्र प्रारब्ध है
पाप के पुण्य के कर्म को भोगना
धैर्य की डोर को साथ विश्वास का
भाग्य की ठेस से भाग्य ही तारता
व्यर्थ ही रुष्ट होते रहे मूढ़ थे
नव्य आरम्भ है अन्त की साधना
यत्न से राख को छान लो ढूँढ लो
आपदा में छुपी एक सम्भावना