स्नेही मित्रों
सस्नेह नमस्कार
अम्मा ने कभी लिखा था-
‘नदिया नाले सूख -सूखकर फिर जल से भर जाते ज्यों?’
‘दुखिया होकर मानव फिर से प्यार में सुख पाते हैं क्यों?’
उन दिनों छोटी थी, समझ नहीं पाती थी वे क्या कहना चाहती हैं। जैसे-जैसे बड़ी होने लगी उनसे मित्रता होने लगी और अधिकतर प्रत्येक विषय पर खुलकर चर्चा होने लगी। पता चला, वे कहना चाहती थीं कि जीवन में ऊंच-नीच होना स्वाभाविक है किन्तु उसे यदि प्रेम से जीया जाए तो दुख के बाद भी सुख का अहसास करके एक सरल, सहज जीवन का आनंद लिया जा सकता है।
मैंने महसूस किया कि माँ के जैसा कोई दोस्त नहीं हो सकता जो हर बात को इतनी सरलता से समझा दे,जो समझा सके कि चीज़ों को कैसे आसान बनाया जा सकता है। बिना किसी मानसिक युद्ध के जीवन केवल प्रेम से जीया जा सकता है ?माँ ने शब्दों से नहीं, अपने व्यवहार से समझा दिया कि किस समय, किस बात को प्रेम से सुलझाया जा सकता है। उनसे हमेशा इस बात पर चर्चा होती रही कि घृणा व प्रेम में से किस बात का प्रभाव मनुष्य पर आसानी से और अधिक अच्छी प्रकार से पड़ता है।
प्रेम के विषय पर माँ ने कई बातें जब मेरे साथ साझा की। मैंने यह महसूस किया कि जीवन में प्रेम के अलावा कुछ नहीं है और प्रेम है जीवन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि! जब बालपन में भी किसी बच्चे से छोटा-मोटा झगड़ा होता माँ प्रेम की बात ही करतीं। सदा समझातीं कि हमारे भीतर इतनी सारी विभिन्न संवेदनाएं हैं, हम केवल महत्वपूर्ण संवेदना के साथ ही क्यों अपना जीवन जीने का प्रयास नहीं करते ?वह प्रेम किसी बंधन में नहीं बँधता, वह किसी भी वृत्त से बाहर है। वह अलौकिक है, वह उदार है, वह परवाह है, वह सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु में है और गूढ से गूढ बात को भी आसानी से स्पष्ट खोल सकता है।
माँ से बिना किसी प्रयास के ऐसी प्रेरणा मिली कि प्रेम जीवन का अभिन्न अंग बन गया और महसूस हुआ कि केवल प्रेम ही ऐसा अहसास है जिसको बिना किसी उलझन के अपने भीतर उतार जा सकता है।
इस बार उसी प्रेम को समर्पित कुछ रचनाएँ –
प्रेम-1
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स्मृतियों के झुरमुट से
अचानक झाँकने लगते हैं
छिपम-छुपाई खेलते
कभी छू जाते
बिदक जाते कभी
कभी रोशनी की लकीर
तो कभी अँधेरों की तासीर
झूमते- झूलते दिनों की
परछाईंयाँ
कभी कमसिन अँगड़ाइयाँ
भौतिक और आध्यात्मिक के
मध्य
झूला झूलते निरंतर
चिंदियों में
पवन के आवेग से
उड़ते प्रेम को
पकड़ने के लिए
भागते हुए
पाँवों का थक जाना
करता है प्रयास
समझाने का
बहुत कुछ
प्रेम ही तो है!
प्रेम – 2
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हर दिन
सरगोशियाँ करता
उकसाता
पालता भ्रम
मन की हर दिशा में
टहलता
अनजाने- अनदेखे
लम्हों को
कराता महसूस
पीले पन्नों को
खोलता
सावधानी से
कर लाता है क़ैद
लम्हों को
थर्राती देह को
स्पर्शता
कनखियों से झाँककर
चेहरों पर
मुस्कानों को
ओढ़ाकर
भरता छुअन
करता कंपित मन को
प्रेम ही तो है!
प्रेम – 3
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बरसों बाद
जब न रहे कोई निशान
दंभ के, ईर्ष्या के
अहं के, जलन के
जब पता चला
ज़िंदा हैं अभी
मुस्कानों के रंग
होठों पर खिली मुस्कान
एक चतुर खिलाड़ी के से
अरमान ने
लगाया गले
पूछा फुसफुसाकर
सच कहना, जिजीविषा
है शेष?
होठों पर पसरी मुस्कान
बिखर आई
उग आया
नव-प्रभात
कहा शिद्दत से
प्रेम ही तो है!
प्रेम – 4
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सौ सौ कोशिशों के बावज़ूद
पवन का अचानक
कुनमुनाना
छिपा लेना
उस फटी चादर में
ख़ुद को
बन जाना लौ
उस अँधेरे के लिए
जहाँ उदासी के सबब
बात – बिना बात ही
हर पग पर, हर पल में
बिखेर देते हैं
एक अनकहा संवाद
दीए की रोशनी
ओढ़ लेती है चुप्पी
दूर किसी अनसुलझे
प्रश्न के उत्तर
भीतर उतारने की पीड़ा
प्रकट हो जाती है
उस बरसों पुरानी
रोगी सीलन भरी दीवार से
फूटती उस हरी पत्ती सी
सिखाती नव अक्षर
कराती परिचय
मुझसे मेरा
प्रेम ही तो है!
प्रेम की चंद रचनाओं के माध्यम से संभवत: प्रेम आँगन लांघकर भीतर उतरकर कुछ फुसफुसाया हो तो बता देना बेझिझक क्योंकि यह प्रतीक्षा है एक टूटी हुई कड़ी को जोड़ने की, प्रेम के सहज, सरल आभास से!