खोने पर आमादा
वह इतने गुम हैं अपने आज में कि उनका जी नहीं करता
कभी झाँक आएं अपने पुराने घर में
कभी देख ले यूँ ही तस्वीरें पुरानी कि जिनमें
शायद वो कहीं ज्यादा मासूम और ज़िंदादिल नजर आते थे।
कभी मुड़ चलें अपने उन दोस्तों के पास
जहाँ वो छल, छद्द्म, अहम्, क्लेश, बनावटीपन जैसे
आज के जरुरी व्यक्तित्व से आज़ाद थे।
कभी मन को एहसास होने दें कमी
उन पुराने दिनों की जिसमें
एक निस्वार्थ प्रेम उनके लिए बिना जताए हँसी बटोरता था।
कभी लिखें कुछ बातें उनके लिए जो
आपसे दूर कहीं आजतक उन पुराने रिश्तों में खुद को भिगोये हुए हैं!
कभी तो दें अपने पुरानेपन को अपने आज में तरजीह
उसी आत्मीयता और प्राथमिकता के साथ
उसी निर्द्वन्दता और नैसर्गिकता के साथ
क्योंकि
आपको कोई भी किताब, कोई भी व्यक्ति, कोई भी साहित्य, कोई भी विज्ञान
फिर चाहे कितना भी हो वीरान
यह नहीं बता सकता कि
आप क्या खोने पर आमादा हो
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देखा है मैंने
देखा है मैंने-
घर, गलियों, मोहल्लों को
एक-एक कर वीरान होते |
चन्द वर्षों के अंतराल में,
चेहरों को अंजान होते।
बेपरवाह परवरिश में,
बच्चों को जवान होते।
देखा है मैंने…
भीड़ को नादान होते।
देखा है मैंने-
ज्योतिष और विज्ञान को
एकसाथ हैरान होते ।
व्यर्थ की उधेड़बुन में,
दुनिया को हलकान होते।
एहसासों के मज़ार पर,
रिश्तों को बेजान होते।
देखा है मैंने…
इंसानो को शैतान होते।