परजन्या
परजन्या
सभ्यता के इन खण्डहरों में
अब कहीं नहीं बहती |
वह एक नदी थी सदानीरा
जो सूख गयी,
हो गयी स्मृतिशेष!
क्या एक दिन
इसी तरह
गंगा भी हो जाएगी
नि:शेष!
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पानी
इस विचित्र समय को जाने बगैर
कहती थी सुलोचना
जब कहीं नहीं बचेगा,
तब भी आदमी की आँख में बचेगा पानी!
अब जब सूख रही
हर तरफ हया की गंगा
और निर्लज्ज हो रही आँखें
क्या तब भी तुम यही कहोगी
सुलोचना?
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उन्मन्या से प्रेम
तुम्हारे साथ चलते हुए
मेरी साँस ही फूल गयी उन्मन्या
अगर यही है तुम्हारा प्यार
तो फिर मैं नहीं चल पाऊँगा।
कभी जिन्दगी को
उसकी स्वाभाविक रफ्तार से भी
चलने दो उन्मन्या!
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आभास
मित्र आभास!
क्या खोज रहे हो इस आभासी दुुनिया में?
यहाँ कुछ नहीं मिलेगा बेगानेपन के सिवा
बचपन का वह पठ याद है-
रानी ,मदन … अमर घर चल?
चलो लौट चलें!
पर क्या
अब यह मुमकिन है आभास?
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सभ्यता
कंक्रीट के जंगल में
तुम्हें खोजते हुए
हुगली में चाँद डूब गया
और उम्मीद की आँखों में
खून उतर आया…
क्या तुम इस जंगल मे
अब भी जिंदा हो सुपर्णा?
किसी का भी दम एक दिन
घुट जाएगा इस जंगल मे!