वसुधा की मन्नत
धरती की मन्नत के धागे,
वहीं धरा पर लटक रहे हैं।
अभिलाषाओं के टिड्डी दल,
वसुधा से जाकर हैं लिपटे
नभचर भी अब छोड़ें नभ को,
बालकनी पिंजरे में सिमटे
चींटी जैसे पाँव धरा पर,
धरते थे जो पटक रहे हैं।
ऋतुओं में उड़ता सौरभ भी,
कब देहों में स्पंदन भरता
फागुन का सतरंगी रेला
साँसों के सावन से डरता
सागर की मछली आँखों में
काँच प्लास्टिक सरक रहे हैं।
बाँधा था जिस वृक्ष मनुज ने
धागा जीवन पारिजात का
लौटाना है अब अचला को
ऋण कण- कण के हर प्रताप का
पूर्ण कामना क़ुदरत की हो
क्यों मनु भावों हिचक रहे हैं।
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नाग
ऊँचे नगरों की बांबी में,
फन उठाते कितने नाग।
वाणी उनकी ऐसी लगती
वमन देह में विचर गया
भेदें आत्मा शब्द बाण से
कण -कण डंक से मर गया
काटें तो पानी ना मिलता
उगल रहे भावना झाग।
जीवन के मोड़ों पर मिलते
रूपों के ये सौदागर
घात लगा ये बैठें हैं सब
हृदय एक भरती गागर
बच कर रहना मानुष इनसे
लोभ सेंध का है सुराग।
निर्मम पापी अत्याचारी,
क्या सम्बोधन हों इनके।
जात-पात अरु वर्ग भेद की,
रोटी सेंकें ये तिनके।
नीच कर्म करतें हैं इतने,
निकल जातें हैं बिन दाग।
कौन जानता नाग निकट हो,
सावधान रह पावन मन।
बुद्धि दृष्टि से तुम जानोगे ,
कहाँ छिपा है कलुषित तन।
जंगल के विषधर हैं सच्चे,
मरुभूमि बरसाते आग।