1. एक चिंतित भोर
गूँजते हैं कुछ सुलगते
प्रश्न चारों ओर ।
स्वार्थ की काई जमी है
आचरण पर
नींद भारी पड़ रही है
जागरण पर
है प्रतीक्षा में कभी से
एक चिंतित भोर ।
देह पीली इस सदी की
हो गयी है
सर्द रातों-सी
सिमट कर सो गयी है
कान पर बजता नहीं
ख़ामोशियों का शोर ।
ग्राफ़ छल का रात-दिन
ऊपर चढ़ा है
पर न सच का वृत्त
बिल्कुल भी बढ़ा है
त्रिभुज में उलझी हुई है
एक कपटी डोर ।
मन-जुलाहा
लच्छियों को खोलता है
रंग यादों के
क्षितिज पर घोलता है
जल रही अवसाद की कंदील
चारों ओर ।
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2. याद दूर्वा-सी उगी है
फट गयी है ज़िन्दगी
बिवाईयों-सी ।
उम्र के पीले पलस्तर
झर रहे हैं
ख़्वाब सब बेदम हुए-से
मर रहे हैं
देह पर चादर बिछी है
झाईयों-सी ।
मौसमी मोहरे
बिसातों पर जमे हैं
खेल में शह-मात के
कब से रमे हैं ।
हर तरफ फिसलन हुई है
काईयों-सी ।
तैरते हैं कुछ हरे शैवाल
मन में
याद दूर्वा-सी उगी है
उर-विजन में
काँपती है पीर भी
परछाईयों-सी ।
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3. हत्या का अभियोग
बरगद के सायों पर लगता
हत्या का अभियोग
सुख के पौधे पनप न पाये
अँधियारों में
धूप रोकते दुख के जाले
गलियारों में
इच्छाओं की अमर बेल पर
सूखेपन का रोग ।
मोर-मुकुट चिंता के जब
खुशियों ने पहने
आहत मुस्कानों पर थे
चुप्पी के गहने
आहत की उजड़ी मज़ार पर
लाचारी के भोग ।
दहशत के बेताल टँगे
मन की डाली पर
आशंका की बेल चढ़ी
सच की जाली पर
अनुबंधों के भी सूली पर
चढ़ने के संजोग ।