1.
कुम्हलाए चेहरे को
बरगद तले मिलता था आसरा
जब दिनकर की भूमि से
खिलखिलाते अंकुरित होते
ढूंढने की, की थी कोशिश
उम्मीदों के बचपन को
‘बेगुसराय’ की कठिन कंकड़ वाली डगर पर
लडखडाते क़दमों से
उम्मीदों ने भी
दूध-भात खाते हुए
की थी जवान होने की हर जतन कोशिश
ढलकाते हुए जल
रावणेश्वर बैद्यनाथ के ज्योतिर्लिंग पर
ढूंढते रहे उम्मीदों भरे सपने
दौड़ते हुए साईकिल पर
घर से कॉलेज तो कभी
कॉलेज से सिनेमा हाल तक भी
जिंदगी के पन्ने रंगे जा रहे थे
‘देवघर’ की पहाड़ियों वाली सड़कों
व, मंदिर के घंटे के बीच
हाँ, उम्मीदें भी जवान हो रही थी इन्हीं दिनों
भटकाव ऐसा कि
इन दिन-महीनों के दौरान
संथाल परगना के नदी-नालों और
पगडंडियों पर
कोशिशें जारी रही
कागज़ की नाव को तैराने की
समय भागता रहा लगातार
मेराथन धावक की तरह
थेथरई जीती रही
हार की गीली पिच पर
अगली तेज पड़ती उम्मीद की गेंद पर
मारूं छक्का सफलता का
पर, इफ-बट का जारमोन
खुँसा रहा कमर की बेल्ट में
उन दिनों हवाएं भी नहीं थी तेज
जो हमारी उम्मीदों को
मिल पाता कोई पुष्पक विमान या ग्लाइडर
हाँ कभी-कभी
राजनीति का झंडा थामे
पाटलिपुत्र की सड़कों पर भी
पैदल ही चल कर, सोचा शायद मिल जाए
कोई गॉडफादर
गांधी मैदान तक पहुँच पाने से पहले तक
थामे रहे उम्मीद के छाते को
पर औकात थी इतनी ही
कि अंतिम व्यक्ति से चार पंक्ति पहले
पर पहले व्यक्ति से दस पंक्ति बाद
रुके रह गए पसीने को पोंछते हुए
यानी “औसत” की पुड़िया फांकते रहे
होमियोपैथी की डोज की तरह
लड़खड़ाती उम्मीद को हल्के से हवा मिली थी, जब
स्लीपर क्लास के जब वेटलिस्टेड टिकट पर
पहुंचे थे
नई वाली दिल्ली के प्लेटफार्म नंबर 16 पर
आखिर आये जो थे नए जहां को जीतने
पर उम्मीद का एक टुकड़ा
पिक पॉकेट हो कर जता गया
कि हर कोई नहीं होता
मुकद्दर का सिकंदर
अब तो
बूढ़ी होती उम्मीद की पोटली को
बैक पैक जैसे एक बैग में
इन दिनों टाँगे रहता हूँ
दर्द से कराहती रीढ़ की हड्डियों पर
कंधे से, झोले में
जब इन्द्रप्रस्थ के
राजपथ पर चलता हूँ अकड़ कर
चलते दौड़ते, बदलते समय के साथ
दिमाग को शिथिल अवस्था में रख कर
दिल को आज भी जवान है, सोच कर
भाग रहा
कदम दर कदम
छिटकती उम्मीदों का भरसक दामन थामे
थमते-थामते, रुकते-रोकते
बढ़ने के अनवरत प्रयास में हैं लगे
की गयी कोशिशें
बस इतना ही बताती है
कि शख़्सियत है ‘जिंदादिल’!
आखिर जीने की कोशिश में अंतिम डोज़ तो यही है
… है न !
*****************
2.
खिलखिलाहट से परे
रुआंसे व्यक्ति की शायद बन जाती है पहचान,
उदासियों में जब ओस की बूंदों सी
छलक जाता हो आंसू
तो उसको एक उंगली पर लेकर
कहने को, कितना सुहाना लगता है ना
कि इस बूंद की कीमत तुम क्या जानो लड़की !!
खिलखिलाते हुए जब भी तुमने कहा
मेरी पहचान तुम से है बाबू
मैंने बस उस समय तुम्हारी
टूटे हुए दांतों के परे देखा
दूर तक गुलाबी गुफाओं सा रास्ता
ये सोचते हुए कि
कहीं अन्दर धड़कता दिल भी तो होगा ना
मेरे लिए
खिलखिलाहट और मेरी खीज
अन्योन्याश्रय संबंधों में बंधा प्रेम ही तो था
जिस वजह से
हिलती चोटियों के साथ तुम्हारी चौंधियाती आँखें
और चौड़े माथे के ऊपर चमकता
चमकीली किरणों सा आसमान जो फैलकर
बताता सूर्योदय का आगाज
कि पकी बालियों सी फसल बस कटने वाली है
सुनो मेरी खीज से परे
बस तुम खिलखिलाना
मेरी कसम है ये
ताकि बस तुम हो तो लगे ऐसा कि
मेरे आसमान में निकलता है रेनबो
जो बताता है
कभी न कभी
मॉनसून के बाद निकलता है एक टुकड़ा धूप
और खिलती है फिजायें
मेरे लिए ……… !
सुनो फिर से कह रहा
बस खिलखिलाती रहना
ताकि महसूस हो कि
मेरे साथ बह रही एक नदी
मचलती, बिफरती, डूबती, उतराती
जीवंत खिलखिलाती नदी
बेशक मुझपर पड़ती रहे
मासूम बूंदों की फुहार …
समझे न!