1.
सुनो,
कुछ गढ़ूं नया?
नवीन विस्तार पाने की एक कोशिश
क्यों? है न संभव?
मानो कि तुम हो
चौसठ घर वाले शतरंज की
सत्ताधारी क्वीन!
मानना ही पड़ेगा क्योंकि
किसी भी सूरत में ताज तो तुम्हें ही मिलेगा न
पर मैं क्या?
मुझमें क्या है दिखता
हाथी-घोडा-नाव
यानि जानवर जैसा समझूँ स्वयं को
न बाबा
फिर वजीर?
लेकिन इतनी भी औकात नही!
चलो ऐसा करते हैं
‘क्वीन’ यानी तुम
और तुम्हारे ठीक सामने वाला
पैदल सिपाही मैं!
ताकि कैसे भी बस करीबी बनी रहे
फिर
फिर मैं हर संभव करूँगा रक्षा तुम्हारी
हाँ, जान देने तक की शर्त है शामिल!
और तुम
तुम बस मुझमें बनाये रखना विश्वास
अ ट्रस्टड आर्मी!
जिंदगी/खेल यूँ ही बढ़ती रहेगी आगे
अंततः समय व चालों के साथ
बस आठवीं अंतिम पंक्ति तक पहुँच पाऊं
शायद यही होगा तुम्हारे साथ से हासिल
मेरी सफलता का पैमाना
काश, कहीं इससे पहले धराशायी न हो जाऊं?
तो होगा
एक शानदार विस्मयकारी परिवर्तन
प्यादे से वजीर में परिणत!!
सुनो!
विश्वास डगमगाए नहीं
वजीर बनते ही होगी मेरी पहली चाल
चेक व मेट!
समझी क्वीन!
बस इतना कह दो न –
“विल वेट”
इंतज़ार का सबब भी है प्रेम ही!
बरगद तले मिलता था आसरा
जब दिनकर की भूमि से
खिलखिलाते अंकुरित होते
ढूंढने की, की थी कोशिश
उम्मीदों के बचपन को
‘बेगुसराय’ की कठिन कंकड़ वाली डगर पर
लडखडाते क़दमों से, उम्मीदों ने भी
दूध-भात खाते हुए
की थी जवान होने की हर जतन कोशिश
ढलकाते हुए जल
रावणेश्वर बैद्यनाथ के ज्योतिर्लिंग पर
ढूंढते रहे उम्मीदों भरे सपने
दौड़ते हुए साईकिल पर
घर से कॉलेज तो कभी
कॉलेज से सिनेमा हाल तक भीजिंदगी के पन्ने रंगे जा रहे थे
‘देवघर’ की पहाड़ियों वाली सड़कों
व, मंदिर के घंटे के बीच
हाँ, उम्मीदें भी जवान हो रही थी इन्ही दिनों
भटकाव ऐसा कि
इन दिन-महीनों के दौरान
संथाल परगना के नदी-नालों और
पगडंडियों पर
कोशिशें जारी रही
कागज़ की नाव को तैराने की
समय भागता रहा लगातार
मेराथन धावक की तरह
थेथरई जीती रही
हार की गीली पिच पर
अगली तेज पड़ती उम्मीद की गेंद पर
मारूं छक्का सफलता का
पर, इफ-बट का जारमोन
खुँसा रहा कमर की बेल्ट में
उन दिनों हवाएं भी नहीं थी तेज
जो हमारी उम्मीदों को
मिल पाता कोई पुष्पक विमान या ग्लाइडर
हाँ कभी-कभी
राजनीति का झंडा थामे
पाटलिपुत्र की सड़कों पर भी
पैदल ही चल कर, सोचा शायद मिल जाए
कोई गॉडफादर
गांधी मैदान तक पहुँच पाने से पहले तक
थामे रहे उम्मीद के छाते को
पर औकात थी इतनी ही
कि अंतिम व्यक्ति से चार पंक्ति पहले
पर पहले व्यक्ति से दस पंक्ति बाद
रुके रह गए पसीने को पोंछते हुए
यानी “औसत” की पुड़िया फांकते रहे
होमियोपैथी की डोज की तरह
लड़खड़ाती उम्मीद को हल्के से हवा मिली थी, जब
स्लीपर क्लास के वेटलिस्टेड टिकट पर
पहुंचे थे
नई वाली दिल्ली के प्लेटफार्म नंबर 16 पर
आखिर आये जो थे नए जहां को जीतने
पर उम्मीद का एक टुकड़ा
पिक पॉकेट हो कर जता गया
कि हर कोई नहीं होता
मुकद्दर का सिकंदर
अब तो
बूढ़ी होती उम्मीद की पोटली को
बैक पैक जैसे एक बैग में
इन दिनों टाँगे रहता हूँ
दर्द से कराहती रीढ़ की हड्डियों पर
कंधे से, झोले में
जब इन्द्रप्रस्थ के
राजपथ पर चलता हूँ अकड़ कर
चलते दौड़ते, बदलते समय के साथ
दिमाग को शिथिल अवस्था में रख कर
दिल को आज भी जवान है, सोच कर
भाग रहा
कदम दर कदम
छिटकती उम्मीदों का भरसक दामन थामे
थमते-थामते, रुकते-रोकते
बढ़ने के अनवरत प्रयास में हैं लगे
की गयी कोशिशें
बस इतना ही बताती है
कि शख़्सियत है ‘जिंदादिल’!
आखिर जीने की कोशिश मे अंतिम डोज़ तो यही है
… है न !