पोल्ट्री फार्म में पलती मुर्गियों को
शायद यह मालूम ही नहीं रहता कि
उन जैसे दिखते, उन्हीं की नस्ल के
कोई मुर्गे भी होते हैं इसी जहां में
उनको तो बस सिखाया जाता है
भरपेट दाना चुगना
और हर रोज़ नए अंडे देना
मगर जिनसे दुर्भाग्यवश
चूज़े नहीं निकलते-मुर्गों के बिना
और वे बस इतना ही जानती हैं कि
उन्हें तो पेट खाली करते रहना हैं, उम्र भर
औरों के पेट और जेबें भरने को
बेखबर रह इस बात से भी कि
हथियाए मुर्गे भी तो, सहानुभूति में
योगदान देते आए हैं सदा से
विडम्बना के इस अस्वाभाविक अंजाम में।
उन बेजुबान मुर्गियों की तरह
एक बड़े बाड़े में बंधी भ्रमित भीड़ भी
इस्तेमाल होती है बस अपना वोट लुटाने,
सस्ते में, हर चुनावी बाज़ार में,
बिना जाने प्रत्याशियों को;
उनके पर्दानशीन इरादों को,
बिन समझे राजनीतिक दलों की दलदल को-
उनके दिखावी घोषणापत्रों को,
और यह भी पूछे बिना
कि तोला जाना है ऐसे कब तक उन्हें
राजनीतिक दांव-पेंच के पलड़ों में
बस बिकाऊ माल की ही तरह
या देख पाएंगे वे भी कभी किसी दिन
अपनी पीढ़ियों को खड़ी
सामाजिक-आर्थिक समानता की सीढ़ी की
किसी ऊँची पायदान पर।
अप्रैल 2024
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बाड़े में बंधी ज़िंदगी
पोल्ट्री फार्म में पलती मुर्गियों को शायद यह मालूम ही नहीं रहता कि उन जैसे दिखते, उन्हीं की नस्ल के कोई मुर्गे भी होते हैं इसी जहां में उनको तो बस सिखाया जाता है भरपेट दाना चुगना और हर रोज़ नए अंडे देना मगर जिनसे दुर्भाग्यवश चूज़े नहीं निकलते-मुर्गों के बिना और वे बस इतना... Read More