अक्सर लोग कहते क्या पूछते हैं, “ये क्या सबको स्नेहिल कहती रहती हो? सारे स्नेहिल होते हैं क्या? बेकार लोगों को सिर पर चढ़ाए रखती हो?” मन उद्विग्न होने लगता है। ये बेकार आखिर होता क्या है? ऐसे तो क्या हम सभी बेकार नहीं हैं? और यदि ‘हाँ’ तो किसी के लिए भी हमारे मन में कोई प्यार, स्नेह न हो तो हमें भी इस नकारात्मकता के लिए तैयार रहना होगा न! क्या संवेदन भी विषयों की तरह विभागों में बँटा है? यह स्नेह का विभाग, यह घृणा का विभाग, यह क्रोध का, यह अहंकार का?
जीवन, जिसमें सीधा सादा एक ही शब्द पर्याप्त है, स्नेह! जो जीवन की धुरी है। जो आरंभ है, अंत भी। जिसका पूरक कुछ हो ही नहीं सकता। उसके लिए इतना क्यों सोचना चाहिए? मुझे नहीं मालूम कि मैं किसी को स्नेह करती हूँ या किसी को सिर पर चढ़ाए रखती हूँ या किसी के सिर पर चढ़ती हूँ। केवल यह जानती हूँ कि जो कर पाती हूँ अपनी प्रसन्नता के लिए। किसी पर कोई उपकार नहीं तो मुझे किसी से शिकायत भी क्यों हो?
कल रात एक मित्र का फ़ोन आया, बहुत दुखी थी। मीलों दूर बैठकर मैं उसके साथ केवल स्नेह बाँट सकती थी। जितना समझा सकती थी, समझाया। वैसे मैं कोई प्रीचर तो हूँ नहीं जो किसी को उपदेश दूँ! यह मेरे मित्रों का, जानने वालों का प्यार ही है जो उन्हें मुझसे बात पूछने के लिए बाध्य करता है। उन्हें कुछ तो विश्वास होगा मुझ पर जो मुझसे अपनी बातें साझा कर लेते हैं। जितना मेरी समझ में आता है, उतना बता देती हूँ, नहीं समझ में आता यह भी बता देती हूँ। किसी को उलझाए रखने में किसका भला होने वाला है? उल्टा समय और ऊर्जा ही खराब होगी न!
उस मित्र का नाम ही स्नेह है, उसे सब लोगों से बहुत सी शिकायतें हैं। दरअसल, सबसे भी क्या, खुद से, भाग्य से, उसके पति का इलाज करने वाले डॉक्टरों से, उसकी इस शिकायत में कुछ वास्तविकता भी ज़रूर है ही, इसमें कोई संशय नहीं है। मेरा तो बस यह कहना था कि जो हो चुका है या तो वह वापिस लाया जा सकता, अन्यथा आगे बढ़ने की ज़रूरत है। जीवन में जब तक साँसें हैं तब तक तो जीना होगा न! तो दुखी होकर जीने का का क्या अर्थ है? क्या इस नकारात्मकता से जीवन कुछ अधिक बेहतर हो सकता है?
प्रश्न मानव-मन के हैं, उत्तर भी भीतर से ही मिलेगा। ‘मोको कहाँ ढूँढे से बंदे, मैं तो तेरे पास रे! ‘जैसी ही कुछ बात है। मन के भीतर प्रश्नों का उगना और थोड़ी विवेकशीलता से मन के भीतर से ही उनका उत्तर पा लेना, लेकिन शांत चित्त से। असमंजस में पड़कर उद्विग्न होकर कहाँ कोई सटीक उत्तर मिल सकता है?
“स्नेह! अभी होली बीती है, प्रकृति ने अपने बंधन खोल दिए हैं। प्रेम वृत्त में कभी नहीं रहता, वह किसी भी प्रकार के दायरों में नहीं पनपता। वह खुले वातावरण में अपनी पींगें बढ़ाता है।
मेरी मित्र मुझसे नाराज़ हो गई थी, “तुम्हें दूसरे की तकलीफ़ कैसे समझ में आएगी भला?” मैं थोड़ी दुखी हुई लेकिन उसे समझाने का पूरा प्रयास करती रही। बड़ी मुश्किल से उसे शांत किया। बच्चों की तरह बहलाया तब बहुत देर में जाकर कहीं शायद उसे थोड़ा कुछ समझ में आया और उसने मुझसे खुलकर बात की। जब रंगों का खेल समझ में आया ,तब तन के साथ मन भी रंगने लगा।
सृष्टि रंगों का जोड़ है, उनके मेल से ही बनी है। ये रंग आपस में खूब खेलते हैं तो प्रकृति जीवंत हो जाती है । फाल्गुन के आते ही प्रकृति रंगो से भर जाती है। इसे देख मनुष्य और सभी पशु पक्षी भी उत्सव के भाव में आ जाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि रंग तो जीवन का आधार हैं। ऐसे में हमें खुद को तो रंगों से रंगना ही चाहिए बल्कि आस पास भी रंग बिखेरने चाहिए और एक स्वस्थ समाज का निर्माण करना चाहिए। हम खुद में रंग भरे ओर चहुँ ओर बिखेरें। तरह-तरह के रंग ही तो जीवन में उत्सव का प्रतीक हैं।
हर दिन उत्सव ही तो है क्यों न करें सत्कार
जीवन के कुछ मूल मंत्र स्नेह,करुणा व प्यार