चिंगारी
न जाने कब रुकेगा, न जाने कब थमेगा
गहन चिंतन करता मन!
राहों से निकलती राहें
और उनसे फूटती अनगिनत पगडंडियाँ
कहाँ तक ले जाएंगी अंतर्मन की सोच को
कब तक भटकना है इनपर यूँ ही दिशाहीन
आसमान में चमकता सूरज
मिटा नहीं पा रहा अंदर के अँधेरे को
ना जाने कब मिलेगी, ना जाने कब दिखेगी
नन्ही सी वो एक चिंगारी!
चिंगारी जो सक्षम होगी,
तिमिर के समापन में
जगमगा उठेगा जिसकी चकाचौंध से
मेरे स्वयं का हर एक कोना
उस चिंगारी में शीतलता होगी
शशि से कहीं ज्यादा
ओस सी बरसेगी मुझपर
बुझा देगी हर एक ज्वाला
दहक होगी जिसकी
रवि से कहीं ज्यादा
भस्म हो जाएगी अकुलाहट
मिटा देगी हर एक निराशा
जिसकी आँच में तपने को बेचैन हूँ कबसे
ना जाने कब मिलेगी, ना जाने कब दिखेगी
नन्ही सी वो चिंगारी ‘सत्य’ की!
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फूल तुम खिलते रहना
आघातों का मौसम हो या
नफरतों की चले हवाएँ,
फूल, तुम खिलते रहना
जीवन की पथरीली राहों में
आए कितनी भी बाधाएँ,
फूल, तुम खिलते रहना
छिन जाए मुस्कां अधरों की
आंखों में नमक का डेरा हो,
फूल, तुम खिलते रहना
शब्द एक भी बचे नहीं
जब अपूर्ण हर कविता हो,
फूल, तुम खिलते रहना