बहुत थक गई भागदौड़ के
अब मुझको अवकाश चाहिए
इस गृहस्थ आश्रम से सुनो
मुझ गृहणी को वनवास चाहिए
बैठूं कुछ क्षण एकांत में जाकर
बिन फिकर किये गृह कार्यों की
बांचूं अपने मन की पोथी खुदसे
हो न कोई अवरोध पुकारों के
पसरे फैले हैं जाले मेरे अंतस मन
झाड़ू कुछ मैं भी ये विरान अंस वन
पौंछू हृदय गवाक्ष के ये टूटे कांच
कई वर्षों से वहां बस पसरी है सांझ
हो जाए मंजूर अगर मुझको अवकाश
धूप दिखाऊं गीले मन को दूं रस्सी पर टांग
सीलन भरी गंध आ रही स्वयं से
दशक बीत गए बातें किए बिना खुद से
स्वप्न दिवंगत हो चुके हैं राह ताकते
जिन्हें बांधकर भूल आई थी भंडार गृह में
कुछ शोक मनाकर मैं भी उनका श्राद्ध कराऊं
वो थे तो मेरा जीवन क्यूं न यह फर्ज निभाऊं
भर अंजुरी दाने,पंक्षियों को पास बुलाऊं
बिना स्वयं की जांच के डर, हर रिसता घाव दिखाऊं
शायद वही सिखला दें हुनर नभ को छूने का
काट दिए थे पंख जो मैंने उनके फिर से उगने का।