रात भर संजोए रहा
तुम्हारे सांत्वना के शब्द
यादों की गठरी फिर भी महक रही थी
कि सूरज ने आकर झकझोरा
दिन कतरने बन इधर -उधर बिखर रहा था
एक और तारीख कलेंडर पर से लुढ़क गया था
दिन भर कालेज की इमारतों से फिसलते हुये
टेढ़े-मेढ़े अक्षरों कि गलियों से गुजर
शाम को तुम्हें जब आवाज दी
उस बेशुमार भीड़ मे कहीं से आवाज आयी
‘छोड़ो भी कोई देख लेगा’
मन एकदम लिजलिजा सा हो गया
सड़क की कोलतार चिपकने लगी थी
और मैं बेतहाश भागा
भौंकते कुत्तों को पीछे छोड़कर
रूका तो सामने प्रेस था
जहाँ आज परिणाम निकल रहा था
मन के तार झनझना के टूट रहे थे
तुम्हारी याद, सांत्वना के शब्द
कुछ भी तो नही था पास मेरे
मैं ही निर्जन मे अकेला खड़ा था
अपने पास मे ।
Facebook Notice for EU!
You need to login to view and post FB Comments!