मन मंथन
सोचता हूं मन में मेरे जाने क्या क्या चल रहा है
आग जैसे बह रही है, पानी जैसे जल रहा है
मेरे अन्दर एक जंगल जाने कब से बस रहा है
सुप्त दावानल का लावा खौलता बरबस रहा है
मिटटी का तन, शीशे सा मन फौलादों में ढल रहा है
आग जैसे बह रही है, पानी जैसे जल रहा है १
पर्वतों से निकली धारा, काटती जाती उसे है
धूल जो निकली कुँए से, पाटती जाती उसे हैं
मेरा साया मुझसे कहता तू मुझी को खल रहा है
आग जैसे बह रही हो, पानी जैसे जल रहा है २
उन्मुक्त था जो मन पखेरू , कैद करती लांछनाएँ
आत्मना के हिम शिखर पर, जम रही हैं वंचनाएँ
स्वनामधन्यता का मेरू , आज तिल तिल गल रहा है
आग जैसे बह रही हो, पानी जैसे जल रहा है
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समय पखेरू
समय पखेरू उड़ता जाता लेकर अपने संग हमें
सुख-दुःख के दिखलाते जाता नए नए से रंग हमें
कर्म किया और फल की इच्छा, मानव को संतोष नहीं
जैसी करनी, वैसी भरनी, इसका कोई दोष नहीं
निस्पृह है, ये निर्विकार है, न करता है तंग हमें
सुख-दुःख के दिखलाते जाता नए नए से रंग हमें
भाँप के इसकी गति को प्यारे जो भी आगे बढ़ता है
छू के उन्नति के शिखरों को कीर्तिमान ही गढ़ता है
जीवन को जीने के असली सिखलाता है ढंग हमें
सुख-दुःख के दिखलाते जाता नए नए से रंग हमें
एक बार जो उड़ जाये तो हाथ नहीं फिर आता है
बे-कदरी न करना मेरी, ये सब को समझाता है
समय बड़ा बलवान जीता दे हारी सी भी ज़ंग हमें
सुख-दुःख के दिखलाते जाता नए नए से रंग हमें