मैं,बूढ़े बरगद की टहनी, झंझावात हिला देता
मेरे साए में बैठों को भय सा व्याप्त करा देता
साँसों के साए में पलते कुछ सहमे से गीत नए
खींच भूत में कुछ ले जाते कुछ करते श्रृंगार रहे
ढुलक ढुलक कर पगला मनवा कुछ मनुहार करा देता
मैं बूढ़े बरगद की टहनी ….
बादल मन के भीतर घुमड़े,फिर भी मन बंजर लगता
श्वाँसें रुक रुक चलें ठिठक कर हर दर एक मंज़र लगता
कोमल वायु झंझावातों के ताने से लगते हैं
सहमे पश्नों के जंगल कुछ राग पुराने लगते हैं
चिन्ता चिता समान हमेशा यह अहसास करा देता
मैं बूढ़े बरगद की टहनी….
जीवन के पैताने खड़ी हुई पुरवैया है उदास
किसको किसने समझा है, कौन दूर है, कौन है पास
यूँ तो हर पल ही सौगातों से जीवन है भरा भरा
किंतु पहेली सुलझ न पाई, इसमें खोटा ,कौन खरा
हँसता पल फिर यूँ ही रोने का आभास करा देता
मैं बूढ़े बरगद की टहनी….
लेकिन मन वाचाल बड़ा है झूठ मूठ का व्यापारी
संगीनों से जीतेगा जग, ये कैसी मत गई मारी
जब तक स्नेह न समझेगा तब तक कल्याण कहाँ होगा
ज़िंदा तो रह लेगा पर जीवन सम्मान कहाँ होगा
मंंथर गति साँसों की होती यह पहचान करा देता
मैं बूढ़े बरगद की टहनी….