1.
कुंडली तो मिल गई है,
मन नहीं मिलता, पुरोहित!
क्या सफल परिणय रहेगा?
गुण मिले सब जोग वर से, गोत्र भी उत्तम चुना है।
ठीक है कद, रंग भी मेरी तरह कुछ गेंहुआ है।
मिर्च मुझ पर माँ न जाने क्यों घुमाये जा रही है?
भाग्य से है प्राप्त घर-वर, बस यही समझा रही है।
भानु, शशि, गुरु, शुभ त्रिबल, गुण-दोष,
है सब-कुछ व्यवस्थित,
अब न प्रति-पल भय रहेगा?
रीति-रस्मों के लिए शुभ लग्न देखा जा रहा है।
क्यों अशुभ कुछ सोचकर, मुँह को कलेजा आ रहा है?
अब अपरिचित हित यहाँ मंतव्य जाना जा रहा है।
किंतु मेरा मौन ‘हाँ’ की ओर माना जा रहा है।
देह की हल्दी भरेगी,
घाव अंतस के अपरिमित?
सर्व मंगलमय रहेगा?
क्या सशंकित मांग पर सिंदूर की रेखा बनाऊँ?
सात पग भर मात्र चलकर साथ सदियों का निभाऊँ?
यज्ञ की समिधा लिए फिर से नए संकल्प भर लूँ?
क्या अपूरित प्रेम की सद्भावना उत्सर्ग कर दूँ?
भूलकर अपना अहित-हित,
पूर्ण हो जाऊँ समर्पित?
ये कुशल अभिनय रहेगा!
क्या सफल परिणय रहेगा?
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2.
जा रहे तुम, अब हृदय का,
द्वार प्रतिबंधित रहेगा।
अन्य का इस देहरी पर,
आगमन वर्जित रहेगा!
स्वांस की मद्धिम हुई लौ, और तम के घन, घने हैं।
जीर्ण तन-मन, भाल पर दुख के बहुत जाले बने हैं।
टूट सकती, प्रेम की खिड़की नहीं पर खुल सकेगी।
अश्रु की बढ़ती नमी से जंग साँकल पर लगेगी।
हर नए पदचाप पर प्रिय,
यह हृदय कम्पित रहेगा।
आगमन वर्जित रहेगा!
भर गया मन एक से तो दूसरा मन चाहते हैं।
तुम स्वयं को दोष मत दो, सब नयापन चाहते हैं।
अश्रु-कण से नेत्र-दर्पण अब उतरते जा रहे हैं।
पर तुम्हारे चित्र बिल्कुल भी नहीं धुँधला रहे हैं।
मन तुम्हारे लौटने का,
अंत तक इच्छित रहेगा।
आगमन वर्जित रहेगा!
दृष्टि के इस पेय पर हम सोम-प्याला त्याग आए।
और तब विश्वास का फल, ‘छल’ स्वयं के भाग्य पाए।
प्रेम भी कैसी बला है, घाव संदल भी न माँगे।
अनवरत विरहा-अनल जलती रहे ‘जल’ भी न माँगे।
जो न सह पाया तपन वो,
प्रेम से वंचित रहेगा।
आगमन वर्जित रहेगा!