कई बार लोग पूछ लेते हैं यह अटपटा सवाल
क्या आपको अच्छा लगता है सुंदर महिलाओं को देखना?
लेकिन मुझे नहीं होती कोई भी हिचक यह स्वीकारने में
कि हाँ! मुझे अच्छी लगती हैं सुंदर औरतें!
कितनी सुंदर लगती हैं वो अलसाई सी मम्मियां,
जो सुबह सुबह स्कूल बस तक बच्चों को बहलाते, पुचकारते आती हैं छोड़ने
कि भविष्य में बन सके उनका बच्चा, एक कामयाब मनुष्य
कितनी सुंदर लगती हैं सब्जी बेचती महिलाएं,
जो उपनगरों या गांवों से भोर दो- तीन बजे
लोकल ट्रेनों या बसों में बैठ हो जाती हैं रवाना
भारी भरकम सब्जी की गठरियाँ लेकर
कि लौटकर खिला सकें, अपने बच्चों को पेट भर भात और तरकारी
कितनी सुंदर लगती हैं स्कूटी पर सवार हो
कंधे पर बैग लादे, स्कूल कॉलेज जाती लड़कियाँ
जो सुबह- सुबह टिफिन लेकर निकल जाती हैं घर से
हफ्ते में छह दिन ठण्डा लंच लेती हैं वे
कि खड़ी हो सकें अपने पैरों पर
और जी सकें स्वाभिमान से
कितनी सुंदर लगती हैं वो महिलाएं,
जो घर के सभी सदस्यों का नाश्ता, खाना बनाने के बाद
कंधे पर बैग लटका, निकल पड़ती हैं ऑफिस को
कि दो पैसे घर में लाकर कर सकें मदद
घर चलाने में पति की या बूढ़े होते माँ बाप की
हाँ, मुझे ऐसी सुंदर महिलाओं को देखना
वाकई लगता है अच्छा
मैं अक्सर आते- जाते देखता हूँ बहुत गौर से इन्हें
इनके सौंदर्य को निहारने के साथ
इनके जीवट को सराहने का बहुत दिल करता है मेरा
कितनी सुंदर लगती हैं आंचलिक लिबासों में लिपटी
खेत खलिहानों में प्रचंड धूप में तपती
बुवाई, कटाई, गुड़ाई करती
स्वेद कणों से भीगी, तन्मयता से कर्मरत महिलाएं!
नव निर्माण में लीन
गारा, ईंट, कंक्रीट ढोकर अपना घर चलाती
पैरों पर खड़ी, स्वनिर्भर महिलाएं!!
हैरानी होती है,
कैसे करती हैं इतना सब?
घर, बाहर हर जगह मुस्तैद, सक्रिय
मानो रोबोट में डाल दी हो जान किसी ने
इन्हें सब पता है
कौन घूर रहा है!
कौन कुत्सित मंशा रखता है!
कच्चा ही चबा जाने की
कौन इन्हें आदर से देखता है!
और कौन मन ही मन
पका रहा है खिचड़ी।
मगर सबकी खबर रख कर भी
बड़ी बेखबर हैं ये महिलाएं
इन्हें नहीं कोई परवाह
ठेंगे पर रखती हैं बेशर्म जमाने को
यही हैं वो सुंदर महिलाएं
जो खेल के मैदान में,
अंतरिक्ष में, आसमान में,
अस्पताल और खेत खलिहान में,
अदालतों और विज्ञान में
कर रही हैं करामात
अखाड़े में चला रही हैं मुक्के
अगर इनको देखना, सराहना, मुस्कुराना है इक जुर्म
तो मुझे कुबूल है, ये जुर्म बार बार करना