कैसे हैं सब? लीजिए इस वर्ष की होली भी हो गई। अब फिर जली होली उन लकड़ियों से जो घर-घर चंदा इकट्ठा करके पैसे जमा करके लाई जाती हैं। उत्साही युवक सोसाइटी के घर -घर जाते हैं, सिंहद्वार पर खड़े होकर लकड़ियाँ या फिर पैसे लेने के लिए पुकारते हैं। वैसे युवक तो आजकल शर्माने लगे हैं। उनका स्टेट्स डाउन होता है। अधिकतर छोटे बच्चे ही बंदरों की तरह ही उछल-कूद मचाते हुए पहुंचते हैं सिंहद्वार तक! ये बच्चे किसी बड़े को लेकर साथ लेकर चलना चाहते हैं जिससे उनके लिए कम से कम बंद द्वार तो खुल जाएँ। वरना बच्चे इतना हो-हल्ला करते हैं कि लोग कुछ टूटी-फूटी लकड़ियाँ या मेज-कुर्सी के टूटे हाथ-पैर देकर या फिर थोड़े-बहुत पैसे देकर उनसे पीछा छुड़ाने में ही शुकर मनाते हैं। बड़े लड़कों की शरमा शर्मी लोगों को कुछ ज्यादा पैसे ही देने पड़ जाते हैं और होलिका दहन करने वाली वानर-सेना का मज़ा आ जाता है। |
वैसे अब यह परंपरा भी कुछ समाप्ति के मोड़ पर आई लगती है। जहाँ पहले प्रेम व उत्साह का वातावरण दिखाई दिया करता था, वहीं अब बेरुखी का वातावरण लगता है। उत्सवों का देश भारत जैसे एक सूखे वृक्ष के नीचे त्योहारों की प्रतीक्षा में खड़ा ऐसा लगने लगा है जैसे वह प्रतीक्षा करता ही रह जाता है कि उसमें त्योहारों की कोंपलें कब फूटेंगी? त्योहार आते हैं तो भी उनमें उत्साह, उल्लास की कमी नज़र आती ही है। हमारी पीढ़ी ने कई दशकों के बदलाव देखे हैं। स्नेह, उल्लास से भरे लोगों में हर प्रकार की ऊर्जा देखी है लेकिन अब वही त्योहार सूखे से लगने लगे हैं। वातावरण में उदासी सी महसूस होती है। इसका कारण बदलाव ही है। सोच में बदलाव, व्यवहार में बदलाव, रीति-रिवाज़ों में बदलाव!
वैसे यह कुछ ऐसी बात है जैसे हम हर दूसरे दिन सुनते हैं ‘मॉरल खत्म हो गए हैं’ या फिर संस्कार तो रहे ही नहीं लेकिन कुछ भी खत्म नहीं होता। बदलाव आता है, वैसे ही जैसे ऋतुओं में बदलाव आता है लेकिन अब जब ऋतुओं में भी तारतम्यता के बदलाव की जगह पूरे विश्व में कुछ ऐसे बदलाव आ रहे हैं जो कभी सोचे भी नहीं थे अथवा जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है तो उसके लिए तो कुछ किया ही नहीं जा सकता। इनको स्वाभाविक रूप से स्वीकार करने और उनके साथ चलने में ही भलाई है, संतुष्टि है।
जीवन में प्रत्येक मनुष्य प्यार चाहता है, स्नेह चाहता है, प्रसन्नता में बल्कि आनंद में रहना चाहता है। खुश होना किसी विशेष चीज़ या किसी विशेष स्थिति से हुआ जा सकता है लेकिन यह खुशी कुछ समय की होती है न! यह अस्थाई है ऊपर से दिखना, खुश रहना है जबकि आनंद भीतर से खिलता है, यह प्रेम का प्रतिरूप है! यह ऐसा सुकून है जो मनुष्य के चेहरे को चमक देता है, वही भीतरी आनंद है जो प्रेम से ओतप्रोत है। जिसके भीतर संवेदना होगी, वह दूसरे के कष्ट को समझेगा, परेशानी को समझेगा और उसकी कुछ सहायता करने का प्रयास करेगा। दूसरी ओर जिस हृदय में प्रेम नहीं होगा वह न तो किसी का कष्ट समझेगा, न ही किसी को समझने का प्रयास करेगा। लेकिन प्रेम, करुणा, ईर्ष्या, अहं मनुष्य के भीतरी गुण-अवगुण हैं। मनुष्य के पास समझने, सोचने की ऐसी शक्ति है कि यदि वह थोड़ा जागृत रहे तो अपने आप निर्णय ले सकता है कि उसे क्या करना है? किस स्थिति में रहना है?
संवेग वह प्रकिया है जिससे मनुष्य संवेदनात्मक अनुभव प्राप्त करता है। हमारे भीतर ही सारे संवेग हैं जो आँख, कान, नाक, जीभ व त्वचा के माध्यम से हमारे जीवन को चलाते हैं। ये संवेग तो मनुष्यों में सबके पास हैं लेकिन कुछ में छठी इंद्रिय भी होती है जो ‘सिक्थ सेंस’ कहलाती है लेकिन मित्रों यदि हम अपनी पाँच इंद्रियों का उपयोग करके मनुष्यता को अर्थ दे सकें, इससे अच्छा जीवन जीने का तरीका क्या हो सकता है? प्रेम जीवन को जीने की वह धुरी है जिसके चारों ओर जीवन घूमकर मन को आनंदित करता है, जीवन जीने की कला सिखाता है।
प्रत्येक त्योहार के पीछे कोई कहानी जुड़ी रहती है, उसे मनाने के कारण रहते हैं, उसमें प्रेम की सुगंध रहती है और रहती है एक-दूसरे से, मित्रों,संबंधियों से मिलने की प्रतीक्षा, चाव और ऊर्जा। आजकल दिनों-दिन ऊर्जा कम होती जा रही है।
मुझे अच्छी तरह याद है, जब हम छोटे थे तब रसोईघर के बाहर एक तरफ़ एक चूल्हा बना रहता था उस चूल्हे पर सुबह-सवेरे टेसू के फूलों को एक बड़े से पीतल के पतीले में पकाने रख दिया जाता था। उस पानी में इतना सुंदर बसंती रंग आ जाता था कि मन मुस्कुरा उठता था, मन बासन्ती हो जाता था। उस पके हुए रंग के कुछ लोटे लेकर एक बाल्टी में ठंडे पानी में मिला दिया जाता था। चौक में कोने की मेज़ पर एक बड़ी सी थाली में सब रंग के गुलाल रखे होते थे। जो लोग भी होली खेलने आते वे थोड़ा सा गुलाल लगाते और थोड़ा सा टेसू का गुनगुना पानी एक-दूसरे पर डालते । फिर होता शुरु दौर मिठाई, गुजियों का। किसी किसी घर में ठंडाई भी घुटती थी लेकिन यह ठंडाई ब्रज की तरफ़ का रिवाज़ है जो सब जगह नहीं घोटी जाती। हाँ, मुझे याद है काँजी जिसमें बड़े डालकर रख दिया जाते थे अथवा गाजर डालकर उसकी कांजी बनाई जाती थी और नाश्ते के बाद सबको पिलाई जाती थी।
हर त्योहार प्यार का, स्नेह का, सौहार्द्र का प्रतीक है। जब मैं छोटी थी दिल्ली में पढ़ती थी तब पहली बार मैंने देखा था कि गाड़ी में जाते हुए रास्ते में रोककर लोग एक-दूसरे को अबीर गुलाल लगाते थे। वह इतना सुगंधित होता था कि मैं जब कभी याद करती हूँ, उसकी सुगंध मन में भर जाती है। कई बार सोचती हूँ, क्या वह प्रेम की सुगंध थी? वह प्रेम अब देखने को भी नहीं मिलता। लोग गले मिलते हैं लेकिन ऐसा लगता है जैसे एक औपचारिकता निभा रहे हैं। प्रेम आनंदित नहीं करता, दिखावा लगता है। जरुरी है कि प्रेम को आनंद में परिवर्तित कर लिया जाए।
प्रेम जीवन की वह सच्चाई है जो हर प्रकार के कष्ट को सहजता से पार कर सकती है बशर्ते हम प्रेम की गहराई, उसकी वास्तविकता में जीना सीख लें।
जीवन के इस गुणा भाग में हमें सब कुछ याद रहता है, जमा-घटाना, लेना-देना, अहं के उस पतले तार पर चढ़कर नट का खेल दिखाना। बस याद नहीं रहता तो वह प्रेम का कच्चा धागा जो पतला है, कच्चा है, किन्तु इतना मजबूत है कि एक सिरे से होता हुआ न जाने कितने संबंधों को अपने भीतर समेट लेता है। वह बांधता भी है, खोलता भी है। वह घुटन नहीं देता, आकाश देता है। दरअसल, प्रेम स्वतंत्रता देता है, विश्वास देता है, भौतिक से आध्यात्म की यात्रा का मार्ग प्रशस्त करता है। प्रेम डिबिया में बंद कोई पदार्थ नहीं वरन पवन में लहराती वासंती पवन है जो हमें भीतर से भिगो जाती है और कर देती है तर-बतर सुगंध से और भर देती है हमें आनंदानुभूति से!
देह तक ही क्यों रहे ये प्रेम मन का भाग है जो,
देह से उठकर ज़रा देखें तो मन अनुराग है जो,
प्रेम बिन संसार न है प्रेम बिन न हम न तुम भी,
प्रेम हर पल हरेक ही क्षण प्रेम का अधिकार है जो !!
मित्रों, भर ले अपने मन में प्रेम, इसे वृत्त में न बाँधें। इसे स्वतंत्र कर दें और हर पल आनंद से भरे रहें।