धरती से अम्बर तक फैलेगी नफ़रत की आग।
मानवता की ठोस नींव बस पल भर में हिल जाती है,
जब चिंगारी सियासती ईंधन से जा मिल जाती है।
तब हमसे उठती लौ कहती, ‘भाग सके तो भाग!’
होड़ मची है, आओ देखें कौन कहाँ पर टिकता है?
जिस्मों पर अलगावी खंज़र ‘धर्म’ ख़ून से लिखता है।
सर्फ एक्सल से नहीं धुलेंगे इस कलंक के दाग!
मन की प्यास बुझाने दो, जो मरते हैं मर जाने दो।
इंसानों! माथा मत पीटो, इन्हें भाड़ में जाने दो।
उपद्रवियों ने ख़ुद फोड़े हैं, अपने-अपने भाग।
कागज़ हुआ साँप के जैसा ज़हर उगलती स्याही है,
इसने मन डसकर लोगों में, पैदा कर दी खाई है।
मूढ़-बावरे! वैमनस्य की नींद छोड़ दे, जाग!
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