रंगों की पावन परिपाटी
चुम्बकीय आकर्षण अवितत
दृष्टि जहाँ तक पहुँच रही है,
वर्ण असीमित उत्सव करते
विस्मय का विस्तार वही है,
वन उपवन गिरि जल थल घाटी,
रंगों की पावन परिपाटी।
निर्निमेष दृग हर्षित विस्मित,
वर्णों की नगरी में रख पद।
संवेगों की परिधि नापते,
कहते रंग कथाएँ अनहद।
गोमुख से चल पड़ी जो गंगा
रंग समेटे है जिस भाटी।
रंगों की पावन परिपाटी।
जल सा जीवन निश्चल निर्मल,
इच्छित मन के रंग घोल दो।
पर्व रंग का द्वार – द्वार पर
कहता उर के द्वार खोल दो।
रंगोली है प्रकृति धरा पर
है गुलाल सी सुरभित माटी।
रंगों की पावन परिपाटी।
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लेखनी की कोर से…
है असम्भव कुछ नहीं जग में,परिश्रम हो अगर।
लेखनी की कोर से संदेश जग को दे रहे हैं।
लेखनी नित अस्त्र बन इतिहास अक्षुण्ण कर रही है।
प्रेरणा के दीप जैसी नित उजाला भर रही है।
नित नवल परिवर्तनों से रूप कितने ही गहे हैं।
लेखनी…
साधना एकाग्र मन से,हो अगर वह पूर्ण होती।
यदि परिश्रम हो सतत, नित नव सृजन के बीज बोती।
याद ये भी न रहेगा, हार के आँसू बहे हैं।
लेखनी…
ये मनुज सक्षम सबल है,पत्थरों को तोड़ डाले।
हाथ में नित अस्त्र थामे, हौसलों के खा निवाले।
पूर्ण करने को इरादा, कष्ट मग के सब सहे हैं।
लेखनी…