1 ) और क्या है भाग्य मेरा!
एक ऐसी राह जिसपर,
काँपता हूँ पाँव धर कर,
बिन सुधाकर यामिनी है, बिन दिवाकर का सवेरा।
और क्या है भाग्य मेरा!
कौन कहता है? सफ़र है,
यातनाओं की डगर है,
आँसुओं ने राह छोड़ी, तो दुखों ने आन घेरा।
और क्या है भाग्य मेरा!
द्वार जितने भी खुले हैं,
सब छलावों के किले हैं,
आस के मुख पर खड़ा है, भावनाओं का लुटेरा।
और क्या है भाग्य मेरा!
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2) …. हार गया है
मन की हर अभिलाषा तजकर,
जीकर दुनिया की शर्तों पर,
हम तो जीवित बचे हुए हैं, लेकिन जीवन हार गया है।
तोड़ रहे जितनी ज़ंजीरे,
उतना और बँधे जाते हैं।
जीवन जब-जब सरल लगे है,
तब-तब मोड़ कड़े आते हैं।
पैरों की दुश्वारी समझो,
क़दम-क़दम कितना मुश्किल है,
जितनी मंज़िल पास हुई है, उतना ही तन हार गया है।
उसने ख़ुशबू लाख बिखेरी,
फिर भी दुनिया दूर रही है।
चाहत सबकी है आने की,
मगर विवशता घूर रही है।
जग के तौर-तरीक़े बदले,
लेकिन भाग्य न बदला उसका,
ज़हरीले सर्पों के आगे, फिर चंदन-वन हार गया है।
सदा भरोसे की चौसर पर,
दाव यही तो चला गया है।
जो जितना निश्छल है जग में,
उसको उतना छला गया है।
उसका धर्म सदा से ठहरा,
सच को सच ही दिखलाने का,
पर झूठे चेहरों के आगे, सच्चा दर्पण हार गया है।