1.
कस्तूरी मृग सा मैं भटका
खुद को पहचान नहीं पाया।
जो सत्य छिपा मेरे भीतर
उसको मैं जान नहीं पाया।।
मैं तो पनघट पनघट घूमा
ले कंधे पर गगरी भारी
बढती ही रही प्यास लेकिन
थक गयी सांस हारी हारी।।
अब पहुंच गया उस घाट जहाँ
चेतन भी जड़ हो जायेगा।
जितना भी जोड़ घटाना है
माटी का कण हो जायेगा।।
कुछ स्वर होंगे भीगे भीगे
कुछ याद तुम्हें दे जाऊंगा।
अपने जीवन के नाटक के
संवाद तुम्हें दे जाऊंगा ।।
हँसते-हँसते अब करो विदा
कल रूप बदल फिर आऊंगा।
श्रंगार करो अंगारों से
मैं परम मिलन को जाऊंगा।।
जब याद कभी मेरी आये
मेरा यह गीत सुनाना तुम।
साथी है एकाकीपन का
आँसू मत व्यर्थ बहाना तुम।।
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2.
जब से मैंने कसम उठाई, दिन को रात नहीं बोलूंगा,
सारे पहरेदार समय के, पीछे धोकर हाथ पडे़ हैं।
मैंने मांगा नहीं कि कोई मेरे घर कंचन बरसाये ,
मैंने चाहा नहीं कि आकर मेरा दर्द बटाये।
लोग स्वयं बिकने की खातिर जब मेले में घूम रहे थे,
मेरी रही ढिठाई, मैंने मस्त फकीरी के गुन गाये।
जब से मैंने सीख लिया है, सूनेपन का साथ निभाना
मेरे सारे संगी साथी मुझसे मीलों दूर खड़े हैं ।
चूनर चोली कुंकुंम रोली, तो लाखों के मन को भाये ,
मैंने भरी जवानी में ही मरघट के आंसू अपनाये
पायल की झंकार जिस समय चौराहों पर गूंज रही थी
मैंने उसकी घायल पीडा़ के घर घर में गीत सुनाये ।
इसका ही यह फल है शायद, मैंने दरवाजे पर देखा
रूप रंग के कई शिकारी लेकर खंजर हाथ खडे़ हैं।।
जिसके साथ नहाया सावन, पतझड़ में भी साथ निभाया
सुख में जिसके साथ रहा मैं, दुखः में भी उसको अपनाया
राजपुरुष के युद्ध विजय की जब शहनाई गूंज रही थी,
लोग चले थे राजभवन को, मैं सूनी कुटिया में आया।
जबसे मैंने सोच लिया है, कांटों की पीडा़ गाऊंगा
कितने ही रस लोभी भंवरे, मेरे पथ में आन अडे़ हैं ।।