नहीं बिखेरना चाहता है अब सूरज
सुबह – शाम आसमान मेंं सिंदूरी आभा
खिलते हुए गुलाब भी
दर्ज़ करवा रहे हैं प्रतिरोध ईश्वर से
अपनी पंखुड़ियों के लाल होने का
गाँव की गौरी को नहीं भा रहा है
अपने कपोलों पर रक्तिम रंग
सधवाओं के हाथ कांपने लगे हैं
अपनी मांग को सिंदूर से सजाते हुए
रसोई में माँ भरने लग जाती हैं सिसकियाँ
सब्जी के मसालों में देखकर सूखी सुर्ख़ मिर्च
लाल स्वयं हो गया लामबंद
अब अपने लालित्य पर
यह विरोध लिखते-लिखते
और शांति की अपील करते-करते भी
क़लम किये जा रहे हैं
निर्दोषों के सर भीषण युद्धोन्माद में,
इस रक्तपात के बीच
कलम से लाल स्याही की जगह
रिसने लग गया है अब रक्त
फिर भी अपनी हठधर्मिता पर अड़ा है
तानाशाही तख़्त
आखिर कब तक! गुमराह होते रहेंगे
और कब तक स्वीकारते रहेंगे कि
अस्वीकार्यता और प्रतिरोध का
अंतिम विकल्प युद्ध होता है।