व्यंग्य
व्यंग्य लेख- पुस्तक लेखन का एक्सप्रेस वे
मेरे सहपाठी मित्र कुमार सर्वज्ञ का नाम साहित्य जगत में हिमालयी शिखर को स्पर्श कर रहा हैI उसने कई दर्जन पुस्तकों की रचना कर साहित्य के अखाड़े में तहलका मचा दिया हैI साहित्य के आकाश में कुमार सर्वज्ञ का नाम सर्वप्रथम तब अनुगूंजित हुआ था, जब उसने ‘मुर्गी और अंडा’ शीर्षक एक लंबी कविता लिखी थीI बहुत दिनों तक इस कविता के संबंध में आलोचकीय शीर्षासन होता रहा और पत्र-पत्रिकाओं के खेमेबाज संपादकगण दंड-बैठक करते रहे कि यह कविता है अथवा कविता का प्रेतI इस कविता को लेकर आलोचकगण दो खेमों में बंट गए थे– गतिहीन लेखक संघ और गतिशील लेखक संघI
गतिहीन आलोचक इस कविता को एक अभिनव प्रयोग की संज्ञा दे रहे थे एवं कुमार सर्वज्ञ को अंडावाद का प्रवर्तक, मुर्गीवाद का जाज्वल्यमान नक्षत्र, समतामूलक समाज के पुरोधा (जिसमें मुर्गी और मनुष्य एक ही तुला पर तोले जाते हैं) घोषित कर रहे थेI गतिहीन आलोचकों को इस महाकाव्यात्मक गरिमा से युक्त कविता में भारतीय सनातन धर्म एवं दर्शन की झलक मिल रही थी, जिसमें राम को घट-घटवासी कहा गया हैI कवि ने इस कविता में मुर्गी और अंडों में भी ईश्वर का निवास बताया थाI दूसरी और गतिशील आलोचकों का खेमा कुमार सर्वज्ञ के पीछे हाथ धोकर पड़ा था गोया कवि ने आलोचकों की प्रेमिकाओं को आँख मार दी होI यह खेमा इस कविता को कचरा काव्य,गोबर साहित्य, काव्य कलंक, कविता का बलात्कार आदि न जाने क्या-क्या संज्ञा दे रहा थाI
विरोधी खेमे के आलोचक अपने गाली कोश से सर्वथा नवीन और क्रांतिकारी गालियों को निकालकर सर्वज्ञ को अलंकृत कर रहे थेI जिस प्रकार पक्ष और प्रतिपक्ष के नेतागण का एक-दूसरे की व्यक्तिगत डायरियों के गर्म पन्नों को उलटते-पलटते हैं अथवा यौवन काल की रसदार कहानियों का खुलेआम विमोचन कर अपने संवैधानिक दायित्व का बखूबी निर्वाह करते हैंI उसी प्रकार दोनों खेमों के लेखक-आलोचक वस्त्र उतारवादी साहित्यिक विमर्श में डूबे हुए थेI
एक ओर गतिहीन आलोचक इसे क्रान्तिकारी तेवर वाला महाकाव्य घोषित कर रहे थे तो दूसरी ओर गतिशील आलोचक इस कविता को ‘घासलेटी साहित्य’ से भी चार कदम आगे बढ़कर ‘आमलेटी साहित्य’ की संज्ञा दे रहे थेI इस कविता को लेकर कुछ दिनों तक एक-दूसरे को वस्त्रविहीन करने का रोचक संवाद चलता रहाI सबसे अधिक मत-मतांतर तो इस बात पर था कि यह कविता है या नहींI आलोचकों द्वारा निरंतर बौद्धिक कसरत और आलोचकीय प्राणायाम करते रहने के बाद भी यह प्रश्न अनुत्तरित रहा, लेकिन इस विवाद ने कुमार सर्वज्ञ को बहुचर्चित और विख्यात बना दियाI हिंदी व्याकरण की ऐसी-तैसी करने वाला मेरा सहपाठी रातो-रात उत्तर आधुनिक कालखंड का महत्वपूर्ण कवि बन गयाI यह उसके जीवन की चरम उपलब्धि थीI
बाद में तो वह थोक के भाव पुस्तकों का सृजन करने लगा, मानों चुनावी पोस्टर लिख रहा होI एक से बढ़कर एक फड़कने वाले शीर्षक से प्रकाशित पुस्तकें, उसकी यशगाथा में चार चांद लगा रही थींI गोबर का महत्व, हनुमान चालीसा का काव्य सौंदर्य, पौराणिक महाकाव्य में भैंस का चरित्र, आर्थिक उदारीकरण काल की नारियों का वस्त्र संकुचन, चापलूसी कैसे करें, तेल लगाने का सुख आदि शीर्षक से प्रकाशित पुस्तकें साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं, बाजारवादी दृष्टि से भी सफल थींI उसकी पुस्तकें खूब छपतीं, खूब बिकतींI सरकारी पुस्तक मंडियों में कुमार की पुस्तकों की बहुत मांग थीI एक बार वह महाकवि अज्ञेय से मिलकर आयाI उनसे बहुत प्रभावित लग रहा थाI प्रभाव के आवेश में ही अज्ञेय की ‘हरी घास पर क्षण भर’ की तर्ज पर एक महाकाव्य की रचना कर डाली– ‘हरी मिर्च पर दिनभर’ I इस काव्य में मिर्च से संबंधित संपूर्ण जानकारी थी तथा सूखी-हरी मिर्च का विस्तृत अनुशीलन थाI मिर्च की प्रजातियां, मिर्च की उद्भव गाथा, मिर्च में रासायनिक खाद के उपयोग की विधि- इस काव्य ग्रंथ में सब कुछ थाI कवि और आलोचक इसमें कविताएं ढूंढ रहे थे एवं कृषि वैज्ञानिक कृषि से सम्बंधित ज्ञान-मोती की तलाश कर रहे थे परंतु हाय! सबको निराश होना पड़ाI
हाल ही में कुमार सर्वज्ञ ने साहित्य के मंदिर में एक और महान पुस्तक भेंट की है, जो वैश्वीकरण काल की महत्वपूर्ण कृति घोषित हुई हैI प्रदेश के स्वनामधन्य मुख्यमंत्री प्रपंच नारायण के अनुकरणीय व्यक्तित्व पर केन्द्रित पुस्तक ‘प्रपंच चरितावली’ का लोकार्पण समारोह धूमधाम से आयोजित किया गयाI मुख्यमंत्री जी भी बहुत पारखी व्यक्ति हैंI उन्होंने प्रतिभा का सम्मान करते हुए कुमार सर्वज्ञ को उच्च शिक्षा निदेशक बना दियाI मेरे दूसरे मित्र गणेश प्रसाद चंचरीक तो कुमार सर्वज्ञ के भी उस्ताद हैंI बचपन से ही वह प्रबंधन कला में पारंगत हैI इसीलिए लोग उसे जोगाड़ बाबू के नाम से भी पुकारते हैंI वह तैलीय संप्रदाय का ऐसा कलाविद खिलाड़ी है, जो अपनी प्रबंधन क्षमता और चरणदासी गुण के बल पर एक अदने किरानी के पद से पदोन्नत होकर एक शोध संस्थान का निदेशक बन गयाI वह सामने वाले की ऐसी चरण वंदना करता है कि कितना भी दृढ़ निश्चयी व्यक्ति हो, चंचरीक की चाटुक्तियों से धराशाई हो जाता हैI कहने वाले उसे चमचा कहें अथवा तेल शोधकI क्या फर्क पड़ता है! चंचरीक भी राजधानी एक्सप्रेस की गति से लेखकीय कर्म में आपादमस्तक डूबा रहता हैI पुस्तक लेखन का उसका ढंग भी निराला हैI किसी विषय पर केंद्रित दस-बीस पुस्तकों को एकत्र किया, सभी से कुछ पन्ने उड़ाए, एक धाँसू-सा शीर्षक दिया, भूमिका लिखी, कुछ पैसे देकर किसी से उपसंहार लिखवाया और बस पुस्तक तैयारI लेखन न हुआ, तेली की घानी हो गईI कोल्हू घुमाया, तेल तैयारI उसकी अब तक डेढ़ दर्जन पुस्तकें प्रकाशित होकर साहित्य की श्रीवृद्धि कर चुकी हैंI प्रकाशन जगत में चंचरीक के नाम का सिक्का चलता हैI उसका नाम ही पुस्तक बिक्री की गारंटी हैI चतुर सुजान का कहना है कि कोरे पन्ने की जिल्द पर यदि लेखक के रूप में चंचरीक का नाम अंकित हो जाए तो उसकी बिक्री में देर नहीं लगतीI इसलिए प्रकाशकगण उसकी पुस्तकें प्रकाशित करने के लिए चिर लालायित रहते हैंI पुस्तकालयों और सरकारी विभागों में चंचरीक की गहरी पैठ हैI देखते-देखते पुस्तक की हजारों प्रतियां इन विभागों में खप जाती हैंI प्रकाशक को तो अपने ‘माल’ की बिक्री के लिए मंडी चाहिए I जैसे लोहे का व्यापार, वैसे पुस्तक का व्यापारI बड़े पद और ऊंची पहुंच वाले जुगाड़ू लेखकों से प्रकाशकों को अन्य इतर लाभ भी प्राप्त होते हैंI ऐसे लेखकनुमा नेता या नेतानुमा लेखक प्रकाशकों के लिए विदेश भ्रमण का इंतजाम, उनकी बीवियों के लिए किसी निगम की अध्यक्षता, उनकी प्रेयसियों के लिए पेट्रोल पंप की एजेंसी तथा उनकी संतान के लिए देशी-विदेशी संस्थानों में दाखिले की व्यवस्था में भी सहायक हो सकते हैंI प्रकाशकों को वैसे रचनाकार क्या दे सकते हैं, जो अपनी रचनाओं में अपने जीवन का स्वर्णिम पल तथा अपने शरीर का रक्त होम कर देते हैंI ऐसे एकांतसेवी न तो प्रकाशकों के ‘माल’ को सरकारी मंडियों में खपा सकने में समर्थ होते हैं, न ही उन्हें प्रत्यक्ष-परोक्ष लाभ दिलाने में सहायक होते हैंI ऐसे लेखक केवल प्रणम्य होते हैं, आदरणीय होते हैं, पूज्य होते हैंI
– वीरेन्द्र परमार