कविता-कानन
नदी, हमें माफ़ करना
कक्षाओं में नदी का रूप
रटाया नहीं, दिखाया जाए
दिखाया जाए हमारे उस कृत्य को
जिसमें हमनें नदियों से
उनकी धवलता छीनकर
दे दिया है उन्हें अपना कालापन
और ढाँक दिया है उन्हें
रंग-बिरंगी बेशर्म पन्नियों से
नदियाँ अपने उद्गम से निकलकर
पहुँच गयीं हैं मौत के मुहाने तक
और हम देख रहें उनका विलुप्तीकरण
जल दिवस, पृथ्वी दिवस, वन दिवस पर
उनमें बचा जल
अब जल नहीं,उनके आँसू हैं
गला तर करनेवाली नदियों का
गला सूख रहा है
वे माँग रहीं हैं हमसे
हाथ जोड़कर जीवनदान
मैं उनका मुँह
जब देखता हूँ
तो मैं अपना-सा मुँह
लेकर रह जाता हूँ
नदियों का सूखना
शुभ संकेत नहीं।
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चलो पेड़ काटे
लाओ एक आरी
एक रस्सी
और कुछ नामर्द
आओ अब पेड़ काट कर गिरायें
लेकिन याद रहे,
पेड़ गिराने से
भले ही बनता है
हमारा दरवाज़ा
हमारा सन्दूक
हमारा हुक्का
हमारा मेज
और बनती है सबसे कीमती
हमारी कुर्सी
हमारी सिन्दूरदानी
हमारा तख्ता
हमारा पीढ़ा
हमारी कठौती
और बन जाता है हमारा बडेर
हमारी चाली
हमारा छप्पर
हमारी खिड़कियाँ
लेकिन
गिर जाती है छाया
गिर जाती है साँस
गिर जाता है आदमी
अब ज़रा तय करो
कौन किसके सहारे टिका है?
और कौन किसको
गिरा रहा है?
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एक सूखा पेड़
एक सूखा पेड़
उम्र की बेहतरीन व्याख्या कर सकता है।
एक सूखा पेड़ धरती से नहीं
रेगिस्तान से प्रेम कर लेता है।
एक सूखा पेड़ ख़ुश हो जाता है
दरवाजा बनकर।
एक सूखा पेड़ किसी भी बड़े तूफान से नहीं डरता।
एक सूखे पेड़ में चिड़िया नहीं रहतीं
लेकिन घोंसला टँगा रहता है।
एक सूखा पेड़ चिता की अनिवार्य आवश्यकता है।
नाव एक सूखा पेड़ ही तो है।
एक पेड़ सूख गया है
ताकि जंगल के और पेड़ न काटे जाएं।
एक सूखा पेड़ हरापन त्यागकर
कत्थई लाल हो जाता है।
एक सूखा पेड़ पानी नहीं
जगह चाहता है घर में कुर्सी बनकर।
एक सूखा पेड़ मुस्कुराती हुई अनुभवी कहानी है।
एक सूखा पेड़ छाँव नहीं देता
लेकिन आप उसमें तम्बू बाँध सकते
– विभव प्रताप