कविताएँ
ख़्यालों के गाँव
मेरे ख़्यालों के गाँव आजकल
कुछ ज्यादा ही आंदोलित हैं
ढूंढ रहे हैं वो कटिप्रदेश
जहाँ मिले उन्हें सुकून
रेशम के बंध खुलें उससे पहले
चाहते हैं खोजना उस ह्रदयगर्भा को
जिसके आँचल की छाँव तले
स्मृतियों के झुरमुट से निकाल सकें
उस एक आकार को
जो हो जाए साकार निराकार से
पहाड़ तो पहाड़ हैं, नहीं देते पगडण्डी भी
खोजने और बनाने पड़ते हैं खुद ही रास्ते
बसाने पड़ते हैं गाँव और शहर
क्योंकि
रेशम के कीट पालने को यहाँ नहीं होते मौसम अनुकूल
उसी तरह ख्यालों के मौसम इस बार
बनाना चाहते हैं अपना एक आशियाना
दुल्हन की सेज पे बिखरे फूलों पर ………एक रात की ज़िन्दगी तलक
मैंने उम्मीद को सुहागन रखने की कसम खायी है इस बार …………!!
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‘मैं हूँ न’
तन्हा तो सभी हुआ करते हैं अक्सर
मगर जब खुद से भी तन्हा हो जाता है कोई
खुद से भी दूर चला जाता है कोई
तब करिश्माई करतब कर जाते हैं
एक जादू-सा फिजां में बिखेर जाते हैं
मुझे मुझ से जोड़ जाते हैं
कितना आकर्षण हैं इन तीन लफ़्ज़ों में
या कहूं कितना विश्वास है इन तीन लफ़्ज़ों में
जिस पर गुजर जाती है एक पूरी ज़िन्दगी
उस वक्त
चाहती हूँ रखूँ
खुद अपने कंधे पर हाथ
और थपथपा कर कह दूं खुद को ही …….. ‘मैं हूँ न’
मगर एक ऊहापोह पाँव उठाती है
मुझसे ही भिड़ जाती है
भला ऐसा भी कभी होता है
ढाढस बंधाने को हाथ तो हमेशा दूसरा ही होता है
और इसी आस में उम्र गुजर जाती है
न कोई हाथ आगे आता है
इंतज़ार की शाख पर लटके-लटके कन्धा भी छिल जाता है
तब हुआ जाकर आभास अंतिम सत्य का
आस के पिंजर हमेशा खाली ही रहा करते हैं
और फिर एक दिन
रखकर खुद अपने कंधे पर हाथ
थपथपाया हौले से और कह दिया …….’मैं हूँ न’
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इश्क़ की बेलें
सूख जाती हैं जब प्रेम की कोंपलें
चरमरा जाती हैं एक बार मुट्ठी भींचने पर ही
नमी कहीं बची जो नहीं होती
और लगता है मुझे
जब से मुंह मोड़ा है तुमने
देखने लगे हो पश्चिम की तरफ
सूख चुका है ह्रदय कुम्भ
भरी बरसात में भी नहीं उमड़ा करती कोई नदी अब विह्वल होकर
और मूक वेदना के स्वरों को जरूरत नहीं किसी आर्तनाद की
बिछोह के मनके जप स्वयंसिद्ध होना है अब मुझे ……..
प्रेम का मूल तो बस तुम्हारा और मेरा होना ही है न
फिर चाहे उस होने में तुम कभी उपस्थित रहे ही नहीं
और मैंने कभी अनुपस्थित किया हो ऐसा कभी हुआ ही नहीं ……..
इश्क की बेलें सिरे चढाने को जरूरी नहीं तुम्हारा होना अब ………
– वन्दना गुप्ता