गीत-गंगा
देखो! डरते पेड़
मरघट-सी आवाज़ें सुनकर,
देखो! डरते पेड़।
पीड़ा के गहरे सागर से,
रोज़ गुज़रते पेड़।
घूम रही हैं सबके मन में,
आरी की आवाज़ें।
रोज सवेरे-साँझ पेड़ बस,
आपस में मुँह ताकें।
गुणा-भाग अपने नंबर का,
रोकर करते पेड़।
पीड़ा के गहरे सागर से,
रोज़ गुज़रते पेड़।
नब्ज़ पेड़ की धीमी होती,
धड़कन बहुत बढ़ी है।
मानव के मतलब पर आकर,
ऑक्सीजन सिमटी है।
हाथ, पाँव दे इंसानों के,
‘कर’ को भरते पेड़।
पीड़ा के गहरे सागर से,
रोज़ गुज़रते पेड़।
अंग मुलायम इनके, जैसे;
बच्चों की कोमलता।
संकट के मँडराते बादल,
दें इनको दुर्बलता।
फिर भी जीने की चाहत में,
रोज़ उभरते पेड़।
पीड़ा के गहरे सागर से,
रोज़ गुज़रते पेड़।
नई क्रांति का अख़बारों में,
डंका पीटो सारे।
पेड़ों से ही हो पाएँगे,
ठाठ आठ, ‘पौ बारे।’
धरती के साथी हैं क्यों फिर?
हमें अखरते पेड़।
पीड़ा के गहरे सागर से,
रोज़ गुज़रते पेड़।
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कहो! कहाँ कब, पेड़ लगाये?
जंगल काटे,
शहर बसाये,
कहो! कहाँ कब,
पेड़ लगाये?
कंकरीट का शासन होता,
लोकतंत्र में।
पेड़ रोज़ अभिशापित होता,
मनुज मंत्र में।
न्याय व्यवस्था जैसे हमने,
पेड़ सताए।
कहो! कहाँ कब,
पेड़ लगाये?
काली गैसें पेड़ों के घर,
भेजीं हमने।
सी.ओ.टू से घुटती साँसें,
जातीं थमने।
अपने ही हाथों हम अपना,
गला दबाए।
कहो! कहाँ कब,
पेड़ लगाये?
गौरेया, कोयल, चिड़िया को,
छोड़ो भी।
यार! पुरानों से अब नाता,
तोड़ो भी।
उल्लू अपनी मनमर्ज़ी के,
ख़ूब पटाए।
कहो! कहाँ कब,
पेड़ लगाये?
– शिवम खेरवार