कविता-कानन
गिरना महज़ एक क्रिया है
सत्ताओं का इतिहास
आज अपने अतीत को दोहराते हुए
खड़ा हो गया है सामने
सत्ताओं ने कभी नहीं चाहा
कि ख़त्म हो जाए उनकी सत्ता
उन्होंने होने दिया रक्तपात
सत्ता के अस्तित्व बचाये रखने के लिए
विचारधाराओं की लड़ाई में
वे मूकदर्शक बन जाते हैं
उनके लिए देश तब देश नहीं होता
और जनता केवल जनता नहीं होती
वह सत्ता की प्रयोगशाला बन जाती है
सत्ता भूखे भेड़ियों की मानिन्द
केवल रक्त पीना जानती है
वह जानती है सलीक़े से
जनता को आपस में लड़ाना
और उनके ठीक निशाने पर है
मानवीय सौहार्द की दीवार
कि अब सत्ताएँ गिर रही हैं
अनंत उचाईयों से
उसके लिए गिरना
महज एक क्रिया नहीं है
वरन एक सटीक प्रयोग भी है
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शिकारी
शिकारी ने बिछा दिया है जाल
जंगल के कोने-कोने में
और देख रहा है रक्तिम आँखों से
अपना शिकार
उसका तरकश भरा है
कुछ नुकीले, कुछ भोथरे
कुछ बिना फलक के बाणों से
उसकी ज़द में है
निरीह प्राणियों की गर्दन
और छाती पर है
चमचमाती शमशीर
वह छद्म विधाओं में पारंगत
प्रवेश कर गया है मुखौटा लगाए
जंगल के बीचो-बीच
बोल रहा है बनावटी बोलियाँ
वह कूट भाषा में सिद्धहस्त
किसी ऐंद्रजालिक की तरह
दिखाता है हस्त पर उगता हुआ फल
वह केवल शिकारी नहीं है
वह पूरे जंगल में आग लगाकर
देख रहा है चुपचाप
बिलखते हुए प्राणियों को
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साल के आख़िरी दिन पर
साल के आखिरी दिन के होने पर भी
मनुष्य चलना नहीं छोड़ता
चिड़िया उड़ना नही छोड़ती
नदियाँ बहना नहीं छोड़ती
उसी तरह सूरज भी नहीं बदलता अपना रास्ता
साल के आख़िरी दिन के होने से
किसान को कोई फ़र्क नहीं पड़ता
वह अपनी फ़सलों को
सर्द हुए मौसम में सींचता है
मजदूर भी दिनभर अपनी खटराग में उलझे
दो वक्त की रोटी का इंतजाम करता है
जैसे अंधेरे के साथ रोशनी
दिन के साथ रात और दुख के साथ सुख
कभी साथ नहीं छोड़ते एक दूसरे का
वैसे ही रास्ते भी नहीं छोड़ते किसी राही का साथ
साल के आख़िरी दिन पर
कुछ स्मृतियाँ उभर आती हैं ज़ेहन में
कुछ पीड़ाएँ भी देती हैं दस्तक
और याद आता है वह सब कुछ
जो आँखों के सामने कुछ अधूरेपन के साथ
एक रील की मानिन्द खुलती जाती है हमारे सामने
साल के आख़िरी दिन पर
अंकित होते हैं पूरे के पूरे बीते हुए दिन
उन पर लिखा होता है समूचे देश का इतिहास
कुछ घटनाएँ दर्ज हो जाती हैं
जिन्हें याद करने पर सहम उठता है कलेजा
साल की ख़त्म होती सर्द शामों के साथ
पक्षी लौटते हैं बिखरे हुए अपने घोंसलों में
और एक आदमी कंपकपाती रात के अंधेरे में
तापने के लिए खोजता है महज़ एक अलाव
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बलात्कारी भेड़िए
मानव सभ्यता के माथे पर अंकित
बलात्कार रूपी कलंक ने
हिलाकर रख दिया है मानवी जमात को
एक बार फिर संवेदनाएँ बह गयी हैं
बलात्कारी भेड़िए पसीजते नहीं
स्त्री अस्मिता को तार-तार कर
माँस के लोथड़े की तरह नोंचकर खा जाते हैं
और खेलते हैं खेल हैवानियत का
समय का कैसा अंधेरा युग है
कि न्याय की बाट जोह रही पीड़िता को
परिवार सहित कुचलवा दिया जाता है सड़क पर
और अब न्याय वेंटिलेटर पर आखिरी साँस गिन रहा है
सत्ता बन जाती है रखैल बलात्कारी भेड़ियों की
मीडिया धर्म-धर्म खेल रही है
राष्ट्रवादी कवियों की लेखनी मौन है
अनेक सेनाओं के तथाकथित शूरवीर
कुम्भकर्णी नींद में सो रहे हैं
संगठन विशुद्ध राजनीति के लाभ हानि तय कर रहे हैं
सुन सको तो सुनो,
समय की कालिमा बढ़ रही है
क्रूरता भी पार कर गयी है अपनी पराकाष्ठा
हमें बच्चियों की अस्मिता के रक्षार्थ
अब उठाने होंगे हथियार
करना होगा शिकार
बर्बर हो चुके बलात्कारी भेड़ियों का
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बचे रहेंगे शब्द
नेपथ्य में चलती क्रियाएँ
बहुत दूर तक बहा ले जाना चाहती हैं
जहाँ समय के रक्तिम हो रहे क्षणों को
पहचानना बेहद मुश्किल हो चला है
तुम समय के ताप को महसूस करो
कि जीवन-जिजीविषा की हाँफती साँसों में
धीरे-धीरे दम तोड़ रही हैं हमारी सभ्यताएँ
स्याह पर्दे के पीछे
छिपे हैं बहुत से भयावह अक्स
जो देर सबेर घायल करते हैं
हमारे इतिहास का वक्षस्थल
और विकृत कर देते हैं जीवन का भूगोल
हवा में पिघल रहा है
मोम की मानिन्द ज़हरीला होता हुआ परिवेश
और तब्दील हो रहा है
हमारे समय का वह सब कुछ
जिसे बड़े सलीक़े से संजोया गया
संस्कृतियों के लिखित दस्तावेजों में
बिखर रही उम्मीद की
आख़िरी किरण सहेजते हुए
ख़त्म होती दुनिया के आख़िरी पायदान पर
केवल बचे रहेंगे शब्द
और बची रहेगी कविता की ऊष्मा
– शिव कुशवाहा