कविता-कानन
तबला
एक
मैं दरिया तक आकर लौट नहीं जाता
एकालाप में लौटते देखा है तुमको मगर
देता हूँ थाप शांत धीमे चल रहे पानी पर
पानी पानी नहीं तबला है इस दरिया का
जिसको बजाता हूँ एकांत से जूझते
दो
जीवन में क्या है दाह के अलावा बचा
जिसको आज़माते हो तुम मेरे विरुद्ध
मेरे जीवन में तबला है तुम्हारे अनकहे ग़ुस्से को
ठंडी आग बना देने के लिए तुम्हारी कुंठा को भगाते
तीन
तुमको जब देखा तन्हा देखा
इस न बोलने वाले शहर में
मैं वादक अकेला कहाँ हुआ कभी
अकेला रहकर भी तुम्हारे शहर में
चार
यह एक भारी रात है
तुम्हारे दुःख में पागल
छंद भी लय भी भूल चुका
तबला मेरा तेरे ही ख़्याल में डूबा
पाँच
घूमते रहने वाला मुसाफ़िर
घूम आता है सहरा तक जाकर
तबले का मीठा स्वर जिस तरह
तुमको ले आता है मेरे घर में
घर की तन्हाई को भगाने
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पानी घर में भी था
पानी घर में भी था
एकदम अल्हड़
एकदम पहाड़ी
एकदम मधुर
फिर भी किन्तु-परन्तु को त्याग
हम लौटे नदी से नहाकर
जो सूख गई थी आदतन
और इस बरसात में
जीवित हो गई थी पुन: पुन:
पानी घर में भी था
एकदम जादुई
एकदम बातूनी
एकदम गँवई
तब भी हम नहाए
हरे-भरे पेड़ों के बीच
बरसते जल के नीचे
इस ईद में
कुछ नया रचते हुए
पुरातन को ढाते हुए
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जल
बरस रहा है जल
उस दिगंबर स्त्री की
देह पर
उस स्त्री के आसपास
उग आती हैं हरी घासें
इकट्ठे हो जाते हैं हरे परिन्दे
उस स्त्री के आसपास
हरा हो गया है यह समय भी
मुद्दत बाद
पूरी तरह
इस ईद में
पानी बरसे ऐसे ही
उस स्त्री की देह पर
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हँसी
वह हँसती है
इस ईद में
इस समय को
लयबद्ध करती
उसकी हँसी से
पुनर्जीवित हुआ
सूखा पेड़
पुनर्जीवित हुआ घर
और घर से ईदगाह की तरफ़
जाता हुआ रास्ता
पुनर्जीवित हुआ मैं भी
अरसे बाद
इस ईद में
उस लड़की की
हँसी देखकर
– शहंशाह आलम