नवगीत
बिटिया पार करेगी खेके!
माई मनसा-दीप जलाकर
रोज शिवाले मत्था टेके
बिटिया झींक रही पीछे से-
“क्या पाती है.. तन-मन दे के?”
मगर नहीं वह माँ से पूछे
लाभ उसे क्या आखिर इसका?
आँख मूँद माँ गुनती रहती-
“वंश-बाँस पर बस है किसका?
शैलसुता-से पाँव सहज हों
जागे भाग करम के छेके!’’
जुड़ते हाथ अगर मन्दिर में
ताली बजती क्यों गाली पर
सिद्धिरात्रि ने खोला खुद को
मौन सभी क्यों बिकवाली पर!
दे कर दूब सहारा, मिलते-
यहाँ जागरण के सब ठेके!
जोड़ रही कल्याणी पैसे
कालरात्रि की रातें बेदम
आहत-गर्व पड़ी कूष्माण्डा
दुर्गा के मन पैठा विभ्रम
खप्परवाली काली बैठी
जूठे बरतन-बासन ले के!
उलझी अपने अपरूपों में
अपनों ही से प्रश्न करे वह!
सारे प्रश्नों को ले बिटिया
सोचे किससे उत्तर ले वह?
जगत-नदी है उत्पाती पर
अब तो पार करेगी खे के!
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शिव का दृढ़ विश्वास मिले अब
उमा-उमा मन की पुलकन है
शिव का दृढ़ विश्वास मिले अब!
सूक्ष्म तरंगों में सिहरन की
धार निराली प्राणपगी है
शैलसुता सी क्लिष्ट मौन थी
आज भाव से आर्द्र लगी है
हल्दी-कुंकुम-अक्षत-रोरी
तन छू लें
अहिवात निभे अब!!
तत्सम शब्द भले लगते थे
अब हर देसज भाव मोहता
मौन उपटता धान हुआ तो
अंग-छुआ बर्ताव सोहता
मंत्र-गान से अभिसिंचित कर.. !
सृजन-भाव सत्कार लगे अब !!
जब काया ने सृष्टि-चितेरा
हो जाना स्वीकार किया है
उत्सवधर्मी परंपराओं
का शाश्वत व्यवहार जिया है
कुसुम-रंग-अनुभाव प्रखर हैं
शिव-गण का उत्पात रुचे अब!!
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चाहना
छू दो तुम..फिर
सुनो अनश्वर!
थिर निश्चल
निरुपाय शिथिल सी
बिना कर्मचारी की मिल सी
गति-आवृति से अभिसिंचित कर
कोलाहल भर
हलचल हल्की
अँकुरा दो
प्रति बिंदु देह का
लिये तरंगें अधर पटल पर!
बिंदु-बिंदु जड़, बिंदु-बिंदु हिम
रिसूँ अबाधित
आशा अप्रतिम
झल्लाये-से चौराहे पर
किन्तु चाहना की गति मद्धिम!
विह्वल ताप लिए
तुम ही अब
रेशा-रेशा खींचो तन पर!!
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फगुनाए मन-मन चैताए देह से
सींच गया कोई
एक बूँद नेह से
फगुनाए मन-मन
चैताए देह से!
तनी-तनी कलिका
पोर-पोर हिल गयी
अँकुसी थी उस-कुस
उद्-बुद् खिल गयी
मिलजुल रची गँध
झर रही मेह से
फगुनाए मन-मन
चैताए देह से।
बचे-खुचे टेसू
बाड़-बाड़ गिन-गिन
बने धार देह की;
धूल-धूल किन-किन
टीस पर उग आए,
लगे अवलेह से
फगुनाए मन-मन
चैताए देह से।
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वैधव्य
भारी-भारी साँसें लेती
और पहल क्या करती धरती?
अब हासिल सब
कुहा-कुहा-सा!
जितनी बीती, कौंध रही है,
आँखों में हर बात रात-भर
भोर हुई तो हो जाती हैं
वो ही हरसिंगार टपक कर!
पर आँचल में धरती आखिर
कैसे ओड़े मान चुआ-सा?
अब हासिल सब
कुहा-कुहा-सा!
पीट कलाई आपसदारी
श्वेत वसन में पड़ी हुई है
माँग-चूड़ियाँ धोकर बेसुध
जमी ठण्ड-सी गड़ी हुई है
आडम्बर की ओट बना कर
घर भर खेले खेल जुआ-सा!
अब हासिल सब
कुहा-कुहा-सा!
सुने हुए सब मनहर किस्से
अक्षर-अक्षर बिखर रहे हैं
मौन पसरता लील रहा है
बचे बोल तक सिहर रहे हैं
सध जाये तो, सुध ले लेगी
अभी तर्क है चुका हुआ-सा!
अब हासिल सब
कुहा-कुहा-सा!
– सौरभ पाण्डेय