कविता-कानन
मक़बरा
मुझे नहीं है तलब टूटे हुए चाँद और तारों की
उनके रहने की जगह आसमान ही है
बस इतना कि शब्द दर शब्द गूँजते हैं नग़में
काले दिन और उजली रातों के दरमियाँ
कोई सुख तो है
इतने सारे लबालब भरे दुखों के सागर के बीच
एक तिनका था जिसके सहारे पार पाना था
लेकिन घाट पर बैठकर दूसरी तरफ का नज़ारा नहीं दिखता।
मुझे ताजमहल से चिढ़ होती है
मरने के बाद पैदा हुआ संगमरमर का महल कोई रौशनी दे भी तो किसे
हर रोज़ गुम्बद थोड़ा झुक जाता था अकेले में
कोई कैसे रोके खुद को तन्हाइयों में
सबके अपने दुख हैं
और अपने चाव
एक हाथ भी नहीं बचा दोबारा ताज बनाने के लिए
और मन भी कहाँ है।
दोनों ही काट दिए गए थे
पर लाल रंग के निशान अब भी हैं।
रुलाइयाँ अब भी ज्यों की त्यों।
क्या हर मक़बरा सफेद है!!
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बदबू
बार-बार घर के बाहर निकल कर देखती हूँ
कुछ जलने की बदबू-सी आती है।
एक दीवार है
काले धब्बों से भरी
एक घिन-सी आती है।
उस दिन जब सड़क पर चलते हुए
साइकिल वाले ने पीछा किया था
रुलाई फूट पड़ी थी
और एक मितली-सी आई थी कि कैसे किसी की गंदी नज़र पड़ी।
आज सोच कर सिहरन होती है
कैसे कुछ गंदे हाथ रेंगे होंगे और क्या बीती होगी तुम पर।
किस माँ की कोख छलनी हुई होगी।
बहन की नज़र झुकी होगी
कैसे किस पिता की रीढ़ टूटी होगी।
रात सोने के पहले प्रार्थना की थी
पर ईश्वर खुद व्यथित थे
न वह सोए न सोने दिया मुझे
कहते रहे
कि कब कहाँ ग़लती हो गई इंसान को इंसान बनाने में।
रक्त में क्या मिलाना भूल गया
या रीढ़ की हड्डी में वो रस, जिससे सीधी खड़ी न रह सकी।
क्या पदार्थ था जो रह गया और जानवर बन गया!
मैं शर्मिन्दा हूँ
वह कहते रहे
मैं शिला की तरह बैठी रही और वह इंसानों की तरह रोते रहे।
– रश्मि मालवीय