कविता-कानन
प्रतिरोध
हमारा प्रतिरोध
रचता है विचारों की बहुमंजिली इमारतें
हमारी भावनाओं के जंगल में
एक गहरी सोच की नदी बहती है
हम अपने संस्कारों से
जुड़े हुए रिश्ते को सहेजते
पहुँच जाते हैं अक्सर अपने पूर्वजों के पास
जो अपने वक़्त के उम्दा आदमी थे
हमारी रगों में बहता संस्कार उसी मिट्टी से आया है
नए नियमों और चलनों के वाबस्ता
उपजती कोई झुंझलाहट
संस्कारों और नई सोच के बीच की कड़ी बन जाती है
और जन्म लेता है प्रतिरोध
जो न चाहते हुए भी बनाता रहता है बहुमंजिली इमारतें
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समझौता
वह कौन होगा
जिसने पहले पहल बनाए होंगे
स्त्रियों के वास्ते नियम
जिसने एक पूरे समूचे वजूद को
किया होगा विवश
चहारदीवारी के भीतर
अपनी दुनिया स्वच्छंद बनाने के वास्ते
दरअस्ल ये स्वच्छंदता भी एक निरीह स्वतंत्रता को कर लेती है क़ैद
क्योंकि
दो स्वतंत्र एक साथ
दो स्वच्छंद एक साथ
कल्पना हैं
किसी एक को करना ही होता है समझौता
सभ्यता और शांति के लिए
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इजाज़त
भावनाओं की तस्करी की इजाज़त नहीं है तुम्हें
न ही इजाज़त है उसको दोहराने की
जो कभी-कभी ईश्वर की मर्ज़ी न होते हुए भी तुम कर डालते हो
अपने स्वभाव के विरुद्ध
बहुत से काम
जो नहीं किए जाने चाहिए
मानव होने के नाते
हमारे हिस्से के रंग
हमारे हिस्से के सपने
हमारे हिस्से की आग
हमारे हिस्से का धुआँ
नहीं ले सकता कोई भी शहंशाह
भले ही काट डालो ये पंख
उजाड़ दो पगडंडियाँ
पर हमारे हौसलों की उड़ान का क्या करोगे
जो मोहताज नहीं किसी रास्ते के
न पंखों के
न पाँवों के
न आँखों के
– प्रतिभा चौहान