कविता-कानन
सिलसिला
तुम्हारे आने की उम्मीद
और रेशमी पुरानी यादों ने
कर दिया रौशन ज़िन्दगी का हर कोना
क्षितिज तक चली आयी
एक अनछुई याद
जितना उलीचा, उतनी ही निकलती रही
ज्यों थामकर उँगली चली आती है परछाई बदन के साथ
ज़िन्दगी को रिश्तों ने फेंटा इस क़दर
नस-नस में भर गई सुख और दुःख की चिकनाई
जो बहती है नसों में लगातार
रिश्तों की कुछ यादों के साथ
कुछ खट्टी,
कुछ मीठी,
कुछ कसैली,
कुछ रंगहीन…स्वादहीन…बेवजह
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एक बटा दो संसार के ख़्वाब
चाँद के चेहरे से
थोड़ी ताज़गी उधार ले लो
उजाला चुटकी में भरकर
बढ़ा दो रौनक़ें इस शहर की
उदास धूप कौन देखेगा अगले दिन
हमें इसी शाम की किरचों से सजाने हैं
अलबत्ता ये नाख़ुश चेहरे
कल्पना में गुम होकर याद करना
कि सिरहाने उग आयी है नींद की बेल
हाथों में मल लो रात की गहराई
और एक बटा दो संसार के ख़्वाब
आओ चलो जीते हैं
दुनिया का बँटवारा करके
रात डाल दो मेरी झोली में
ख़्वाबों भरी डाली तुम ले लो
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बुद्ध या बुद्धू
एक धूप के टुकड़े से
मैंने बनाए हैं कई रंग
टाँगा है उदासी को उपेक्षा के हैंगर पर
पोंछ दिया है तनाव चेहरे से
बेवजह हँसने का सलीक़ा सीखा है
अतीत को देखता हूँ दूर से ही बिना ओढ़े हुए
मनचाही जगह रोक देता हूँ ज़िन्दगी की गाड़ी
करता हूँ जी भर के मस्तियाँ
चिंता की चिता बनाकर कब का मार दिया मैंने
बिन बारिश के भीगता हूँ
सब मुझे बुद्धू कहते हैं
और मैं मुस्कुराता हूँ
मैं बुद्ध तो नहीं बन सकता
पर बुद्धू बनना चाहता हूँ
क्योंकि किसी ने कहा था
कि या तो बुद्ध सुखी है
या बुद्धू
– प्रतिभा चौहान