यात्रा
मुझ से मुझ तक की यात्रा न सहज, न सरल, न पावन
असंभव तो नही किंतु बड़ी ही विकट,
व्याधियों से युक्त, माया से मलीन, काया से द्रवित
मोह से ओतप्रोत, लालसा से व्यथित
कौन उबारेगा मुझे डूबते हुए इस तृष्णा के दलदल से?
इस सफ़र का कोई संगी साथी भी तो नहीं
हर पथिक की राह अलग, चाह अलग
कोई चंचल मृग से मन को साधता हुआ
कोई निज गौरव के उन्मुक्त बहाव में बहता हुआ
न जाने कितने जन्मों के मोड़ से टकराना होगा
न जाने कब सुषुप्त बंधनों से जागृत हो पायेंगे
मुझ से मुझ तक की इस निरंतर यात्रा के गंतव्य को
न जाने कब पहुंच पायेंगे, न जाने कब स्वानुभव,
सत्त चित्त आनंद में आत्म साक्षात्कार कर पाएंगे।
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अनहद
तू तूफानी दरिया, मैं बहते तिनके सा
तू विस्तृत व्यापक आकाश, मैं टिमटिमाते तारे सा
तू उगता हुआ रोशन सूरज, मैं वाष्पित होती ओस की बूँद सा
तू चमकती खिलती धूप, मैं बनते बिगड़ते साये सा
तू अलौकिक फूलों की महक, मैं सूखे गिरते पत्तो सा
तू अवधूतों की ज्वलंत धूनी, मैं उड़ती विलीन होती राख सा
तू हिमालय के उतुंग शिखर की धवल हिम, मैं तलहटी के मटमैले पानी सा
तू विराट, वृहत, महा, दीर्घ अनंत, मैं शूद्र, तुच्छ, मूल्यहीन सा
लेकिन खोज ही लूंगा एक न एक दिन मेरा अस्तित्व तुझ में
या जान ही लूंगा तेरा होना मुझ में
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दर्शन
मन के राही जीवन पथ पर चला चल
बुद्धि विचार का कोई खल न हो
राग- द्वेष का कल्मष झोंका बस स्वतः स्फूर्त उठे
और चेतन मन से खो जाये
हो अनंत मार्ग पर प्रशस्त
जहाँ सखा समान आकाश हो
मन का क्षितिज एकरस हो
सप्तक के सारे स्वर अनुगुंजित हो
प्रेम,मैत्री,परमात्मा की अनुभूति अकारण,
निरूदेश्य हो।
उपेक्षा,त्याग,वैराग्य की लहर आए,
वह लहर उत्तल तरंग ही हो,
वह लहर श्रद्धा हो,करुणा हो,
प्रेम हो प्रत्येक लहर,प्रत्येक स्पंदन उसकी पूर्णता में,
उसके सम्पूर्ण विस्तार में हो।