कविता-कानन
ईश्वर के नाम एक पाती
हे ईश्वर!
उम्मीद है आप कुशल मंगल होंगे
वैसे आपकी
कुशलता के लिए मालूम नहीं
किससे दुआ प्रार्थना करूँ!
अपनी कुशलता के बारे में क्या कहूँ
अन्तर्यामी हैं आप
तथापि कहने को विवश हूँ कि
हमारी कुशलता आपके नाम पर
होने वाले अज़ीबो-ग़रीब कामों से खतरे में है
हम बंट गए हैं आपको बाँटते हुए
ज्ञान, बुद्धि की प्रचुरता से
सुनते हैं
अदन की वाटिका में
आपने उगाया था एक ऐसा पेड़
जिसका वर्जित फल खाकर
ज्ञानचक्षु उदीप्त हो गया था आदम और हब्बा का
इल्म की रोशनी तेज़ हो गई है इतनी कि
चुभने लगी है ज़हर बुझी तीर बनकर
धुंआ धुंआ होता आसमां
लपलपाते शोलों से खौफज़दा हमारी खैरियत
बारूद की गंध से बचते-बचाते
महफूज़ ज़गह ढूंढ रही है दहशत के जंगल में
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आधी दुनिया
किसने यह शब्द रचा
साजिश की बू आती है इससे
वापस होना चाहिए यह शब्द
दरअस्ल
तंज कसने की हिमाकत है यह
आँचल और दूध पर
जबकि समूची दुनिया थपकियों से जागती है
लोरियों से सोती है
आंकड़ों की मोहताज़ नहीं है स्त्री
और न यह उसका मापदण्ड है
अहसानफ़रामोशी की हद तो देखिये
अपने हिस्से में पूरी दुनिया समेटकर
दंभ के नशीले समंदर में
खुद को गले तक डुबोये
भूल जाते हैं कि
स्त्री ही सबसे बड़ी रचनाकार है
सृष्टि की मानसपुत्री है
वह रचती है
इसलिए हम रच सकतें है
एक भरी-पूरी दुनिया
और साथ में
सुर, शब्द और रंग
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दिन और रात
दिन की सफेदी का चेहरा
इतना भयानक और बर्बर क्यों है
ज़रूर किसी ने
रात के गर्भ में
शुक्राणु डालने में
बेईमानी की है
रात दबे पाँव आई
दबे पाँव कुछ करके
दबे पाँव निकल गई
सारा दिन
कर्फ्यू के गिद्ध मंडराते रहें
शहर के धुंधुआए आकाश में
– मार्टिन जॉन